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________________ पञ्चाध्यायी '' अर्थ-ज्ञान, दर्शनके समान आत्माका सम्यग्दर्शन गुण भी है, और उस सम्य. ग्दर्शनं गुणको मूर्छित करनेवाला कर्म भी दर्शनमोहनीय कहलाता है। दर्शनमोहनीय कर्म अन्तर्भावी नहीं हैनैतत्कर्मापि तत्तुल्यमन्तर्भावीति न कचित् । तवयावरणादेतदस्ति जात्यन्तरं यतः॥१००७॥ अर्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरणके समान यह कर्म भी कहींपर अन्तर्भूत नहीं हो सक्ता है क्योंकि ज्ञानावरण, दर्शनावरणसे यह सर्वथा जुदा है इसलिये तीसरा ही कर्म हसे मानना चाहिये। सारांशततः सिद्धं यथा ज्ञानं जीवस्यैको गुणः स्वतः। सम्यक्त्वं च तथा नाम जीवस्यैको गुणः स्वतः॥१००८ ॥ अर्थ-इसलिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि जिस प्रकार जीवका एक स्वतःसिद्ध ज्ञान गुण है उसी प्रकार जीवका स्वतःसिद्ध एक सम्यग्दर्शन भी गुण है । - अतएरपृथगुद्देश एवास्य पृथक् लक्ष्यं च लक्षणम् । पृथग्दृङ्मोहकर्म स्यादन्तर्भावः कुतो नयात् ॥ १००९ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनका भिन्न स्वरूप है, भिन्न ही लक्ष्य है, मिन्न ही लक्षण है, और भिन्न ही दर्शनमोहनीय कर्म है फिर किस नयसे इस कर्मका कहीं पर अन्तर्भाव ( गर्भितपना) हो सक्ता है ? अर्थात् कहीं पर नहीं हो सकता । चारित्र मोहनीयएवं जीवस्य चारित्रं गुणोस्त्येकः प्रमाणसात् । तन्मोहयति यत्कर्म तत्स्याचारित्रमोहनम् ॥ १०१०॥ अर्थ-इसी प्रकार जीवका एक प्रमाणसिद्ध गुण चारित्र भी है, उस चारित्र गुणको जो कर्म मूर्छित करता है उसीको चारित्रमोहनीय कहते हैं । अन्तराय-~. अस्ति जीवस्य वीर्याख्यो गुणोस्येकस्तदादिवत् तदन्तरयतीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् ॥ १०११ ॥ । अर्थ-पहले गुणोंके समान जीवका एक वीर्य नामक भी गुण है, उस वीर्य गुणमें जो अन्तर डालता है उसे ही अन्तराय कर्म कहते हैं । भावार्थ-आत्माकी वीर्य शक्तिको रोकनेताला अन्तराय कर्म है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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