________________
पञ्चाध्यायी
दूसरा
डालनेसे कुछ तो निर्मल जल रहता है कुछ गदला रहता है, दोनोंकी मिली हुई अवस्था रहती है। उसी प्रकार क्षायोपशमिक भाव भी दोनोंकी मिश्रित अवस्था है। सर्वार्थसिद्धि में मिश्रका ऐसा लक्षण किया है-“सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात् तेषामेव सदुपशमाच्च देशघातिस्पर्धकानामुदये सति क्षायोपशमिको भावो भवति", अर्थात् जो कर्म सर्वथा गुणका घात करनेवाले हैं उनका (सर्वघातिस्पर्धकोंका) उदयक्षय* होनसे और उन्हीं सर्वघाति स्पर्धकोंका . सत्तामें उपशमं होनेसे तथा देशघाति स्पर्धकोंका उदय होनेपर क्षायोपशमिक भाव होता है । यहांपर यह शंका हो सक्ती है कि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन अथवा चारित्र आत्मीक भाव हैं, क्या आत्मीक भावों में भी कर्मका उदय कारण पडता है ? यदि पडता है तबतो वे आत्मीक भाव ही नहीं रहे, उन्हें कर्मकृत पर भाव कहना चाहिये । यदि कर्मोदय कारण नहीं पड़ता है तो फिर देशघाति स्पर्धकों का उदय मिश्र भावमें कारण क्यों बतलाया गया है ? इसका उत्तर यह है कि आत्मीक भावके प्रकट होनमें कर्मोदय कारण नहीं पड़ता है, जितने अंशमें कर्मोदय है उतने अंशमें तो उस गुणका घात हो रहा है इसलिये कर्मोदय तो आत्मीक भावोंके घातका ही कारण है, यहांपर भी यही बतलाया है कि जिस समय मिश्र भाव होता है उस समय देशघाती कर्मका उदय रहता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि देशघाती कर्मका उदय मिश्रभावका कारण है। सम्यक्त्व प्रकृति सम्यग्दर्शनमें चलता, मलिनता, अगाढ़ता आदि दोष उत्पन्न करती ही है। इसलिये कर्मोदयमात्र ही आत्मगुणोंका घातक है।
औदायक भावका स्वरूपकर्मणामुदयाचः स्याद्भावो जीवस्य संमृतौ। - नाम्नाप्यौदयिकाऽन्वर्थात्परं वन्धाधिकारवान् ॥ ९७१ ॥ - अर्थ-संसारी जीवके कर्मोंके उदयसे जो भाव होता है वही औदयिक नामसे कहा जाता है और वही यथार्थ नामधारी है, तथा कर्मबन्ध करनेका वही अधिकारी है । भावार्थ-द्रव्य क्षेत्र काल भावके निमित्तसे कर्मोंकी जो फलदान विपाक अवस्था है उसीको उदय कहते हैं, कौके उदयसे जो आत्माका भाव होता है उसीको औदयिक भाव कहते हैं, यही भाव आत्माके गुणोंका घातक, दुःखदायक तथा कर्मबन्धका मूल कारण है।
पारणामिक भावका स्वरूपकृत्स्नकर्मनिरपेक्षः प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात् ।
आत्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भावः स्यात्पारिणामिकः ॥९७२॥ * जो कर्म विना फल दिये ही निर्जरित होजाय उसे उदय क्षय अथवा उदयाभावी क्षय कहते हैं।