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________________ - - vvvvvvv अध्याय ।। सुबोधिनी टीका। [२५५ यह बात इष्ट नहीं है। क्यों इा नहीं है इसका उत्तर यही है कि मोक्षके लिये जो श्रम किया जाता है वह सव व्यर्थ होगा। भावाथ-जीवको सर्वथा शुद्ध माननेसे मोक्षका विवेचन और उसकी प्राप्तिका उपाय आदि सभी बातें व्यर्थ ठहरती हैं, यह बात इष्ट नहीं है । सर्व विप्लव नेप्येवं न प्रमाणं न तत्फलम् । साधनं साध्य मावश्च न स्याहा कारकक्रिया ॥९६१ ॥ अर्थ-जत्र मोक्ष व्यवस्था और उसका उपाय ही निरर्थक है, तब न प्रमाण बनता है, न उपका फल बनता है, न पाधन बनता है न साध्य बनता है, न कारण बनता है और न क्रिया ही बनती है, सभीका विप्लव ( लोप ) हो जाता है । भावार्थ-जीवको पहले अशुद्ध माननेसे तो संसार, मोक्ष, उमका उपाय साध्य, सायन, क्रियाकारक, प्रमाण, उसका फल सभी बातें सिद्ध हो जाती हैं परन्तु जीवको सर्वथा शुद्ध मारनेसे ऊपर कही हुई बातोंमेंसे एक भी सिद्ध नहीं होती है । इसलिये पहले जीवको अशुद्ध मानना ही युक्तिप्तङ्गत है। सारांशसिद्धमेतावताप्येवं वैकृता भावसन्ततिः। अस्ति संसारिजीवानां दुःखमूर्तिरुत्तरी ॥९६२॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनसे यह बात भलीभांति सिद्ध हो चुकी कि संसारी जीवोंके भावोंकी सन् ति विकृत है, दुःखकी मूर्ति है, और खोटे फलवाली है। शङ्काकारननु वैभाविका भावाः कियन्तः सन्ति कीदृशाः। किं नामानः कथं ज्ञेया ब्रूहि मे वदतां वर ॥९६३ ॥ अर्थ-वैभाविक भाव कितने हैं, वे कैसे हैं, किस नामसे पुकारे जाते हैं, और कैसे जाने जाते हैं ? हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! मुझे सब समझाओ । उत्तरश्रृणु साधो महाप्राज्ञ ! वच्म्यहं यत्तवेप्सितं । प्रायो जैनागमाभ्यासात् किञ्चित्स्वानुभवादपि ॥ ९६४ ॥ अर्थ-शङ्काकारको सम्बोधन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-हे साधो ! हे महा विद्वान्! जो तुम्हें अभीष्ट है उसे मैं कहता हूं, प्रायः सब कथन मैं जैन शास्त्रोंके अभ्याससे ही करूंगा, कुछ २ स्वानुभवसे भी कहूंगा । तुम सुनो। - भावोंकी संख्यालोकासंख्यातमात्राः स्युर्भावाः सूत्रार्थविस्तरात् । तेषां जातिविवक्षायां भावाः पञ्च यथोदिताः ॥ ९६५ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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