________________
अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
विशेष
नहीं होता है । यह वात जिनागमसे सिद्ध है। ४
नूनं कर्मफले सद्यश्चेतना वाऽथ कर्मणि । स्यात्सर्वतः प्रमाणादै प्रत्यक्षं बलवद्यतः ८५८॥
अर्थ-सम्यक्त्वके अभावमें कर्म चेतना व कर्मफल चेतना होती है, और यह बात सर्व प्रमाण सिद्ध है । क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि मिथ्यादृष्टिके कर्मचेतना व कर्मफल
x बहुतसे लोग ऐसी शंका उठाया करते हैं कि कागज़, पेंसिल आदि पदार्थोंका ज्ञान जैसा सम्यज्ञानीको होता है वैसा ही मिथ्याज्ञानीको होता है। फिर यथार्थ ज्ञान होने पर भी, मिथ्यादृष्टिको मिथ्याशानी क्यों कहा जाता है ? इस शंकाका यह समाधान है कि केवल लौकिक पदार्थोंको जाननेसे ही सम्यज्ञानी नहीं होजाता है । यदि लौकिक पदार्थोंको जाननेसे ही सम्यग्ज्ञांनी होजाता हो तो उस पाश्चिमात्य-विज्ञान वेत्ताको जो कि अनेक सूक्ष्म आविष्कार कर रहा है और पदार्थोकी शक्तियों का परिज्ञान कर रहा है सम्यशानी कहना चाहिये, परन्तु नहीं, वह भी मिथ्याज्ञानी ही है। सम्यग्ज्ञानीका यही लक्षण है कि जिसकी आत्मामें दर्शन मोहनीय कमके क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशमके साथ ही मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम 'लब्धि' होचुका हो। मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम यद्यपि सामान्य दृष्टि से सबके ही होता है तथापि यह जुदा है। यह स्वानुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम कहलाता है। स्वानुभूति भी मतिज्ञानका ही भेद है। सम्यग्ज्ञानीके स्वानुभूति लब्धि प्रकट होजाती है वस यही उसके सम्यग्ज्ञानका चिन्ह है। इसीसे बाह्य पदार्थों में अल्पज्ञ अथवा कहीं पर शङ्कित वृत्ति होनेपर भी वह सम्यग्ज्ञानी ही कहा जाता है । सम्यग्दृष्टिको भी रस्सीमें सर्पका, सीपमें चांदीका, स्थाणु) पुरुषका भ्रम होता ही है परन्तु वह भ्रम बाह्यदृष्टिके दोषसे होता है। उसके सम्यग्ज्ञानमें वह दोष बाधक नहीं होसकता है। पशुओं को भी सम्यग्दर्शन के साथ वह लब्धि प्रकट होजाती है, इसी लिये वे पदार्थों का बहुत कम (न कुछके बराबर) ज्ञान रखने पर भी सम्यज्ञानी हैं। पशुओंको जीवादि तत्वोंका पूर्ण बोध भले ही न हो तथापि वे उस मिथ्यात्व पटलके हट जानेसे सम्यग्ज्ञानी हैं। सम्यग्ज्ञानीको बहु विज्ञ होना चाहिये ऐसा नियम नहीं है, केवल स्वानुभूतिके प्रकट होजानेसे ही सम्यग्ज्ञांनी अलौकिक सुखका आस्वादन करता है। आत्मोपयोगी पदार्थोंका श्रद्धान सम्यग्ज्ञानीको ही होसकता है वह श्रद्धान बड़े २ आविष्कारोंको नहीं होसकता । आजकल 'बहुतसे मनुष्य हरएक पदार्थके विश्वासको सम्यग्दर्शन कह देते हैं परन्तु ऐसा उनका कहना लोगोंको केवल भ्रममें डालनेवाला ही है। सिद्धान्त तो यहां तक बतलाता है कि विना स्वानुभूतिके जो जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान है वह भी सम्यक्त्व नहीं है, यही कारण है कि द्रव्यलिङ्गी मुनि संसारमें ही रहते हैं, वे यद्यपि दश अंग तकके पाठी होजाते हैं उन्हें जीवादि तत्त्वोंका भी श्रद्धान है परन्तु स्वानुभूति लब्धिका उनके अभाव है इसी लिये वे मिथ्यादृष्टि हो हैं उनको यथार्थ सुख का स्वाद नहीं मिलता है। उपर्युक्त कथनका सारांश यही है कि जिनके स्वानुभूत्यावरण कर्मकां क्षयोपशम होचुका है वे ही सम्यग्ज्ञानी हैं। हां, स्वात्मोपयोगी पदार्थोंका श्रद्धान भी सम्यक्त्वमें कारण है।