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________________ पञ्चाध्यायी । [ दूसरा २१८] अर्थ — छद्मस्थ जीवोंके चारों ही ज्ञान (मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्ययः) नियमसे क्रमवर्त्ती हैं इसलिये चारों ही संक्रमण रूप हैं । नालं दोषाय तच्छक्तिः सूक्तसंक्रान्तिलक्षणा । तोर्वैभाविकत्वेपि शक्तित्वाज्ज्ञानशक्तिवत् ॥ ८४८ ॥ अर्थ- संक्रमण होनेसे ज्ञान शक्तिमें कोई दोष नहीं समझना चाहिये । यद्यपि वैभाविक हेतुसे उसमें विकार हुआ है तथापि वह आत्मीक शक्ति है जिस प्रकार शुद्धज्ञान आत्माकी शक्ति है । इसीप्रकार संक्रमणात्मक ज्ञान भी आत्माकी शक्ति है । सारांश ज्ञानसञ्चेतनायास्तु न स्यात्तद्विघ्नकारणम् । तत्पर्यायस्तदेवेति तद्विकल्पो न तद्विपुः ॥ ८:९ ॥ अर्थ- - वह संक्रान्ति ज्ञानचेतना में विघ्न नहीं कर सकती है क्योंकि वह भी ज्ञान - की ही पर्याय है। ज्ञानकी पर्याय ज्ञानरूप ही है । इसलिये विकल्प (संक्रमण ज्ञान) ज्ञानचेतनाका शत्रु नहीं है । भावार्थ- पहले यह कहा गया था कि व्यावहारिक सम्यग्दर्शनमें सविपज्ञान रहता है, और उसका कारण कर्मोदय है । कर्मोदय हेतुसे व्यावहारिक सम्यग्दृष्टिका ज्ञान संक्रमणात्मक है। इसलिये उस विकल्पावस्थामें ज्ञानचेतना नहीं होसकती । ज्ञानचेतना वीतराग सम्यग्दृष्टि ही होती है। इसी वातका निराकरण करनेके लिये आचार्य कहते हैं कि विकल्पज्ञान ज्ञानचेतना में वाधक नहीं होसकता। चारों ही ज्ञान क्षयोपशमात्मक हैं इसलिये चारों ही संक्रमणात्मक हैं । संक्रमणात्मक होनेसे ज्ञानचेतनामें वे किसी प्रकार बाधक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि ज्ञानचेतनाका जो प्रतिपक्षी है वह ज्ञानचेतनामें बाधक होता है । विकल्पात्मकज्ञान ज्ञानकी ही पर्याय है इसलिये वह ज्ञानचेतनाका प्रतिपक्षी किसी प्रकार नहीं है । शङ्काकार- ननु चेति प्रतिज्ञा स्यादर्थादर्थान्तरे गतिः । आत्मनोऽन्यत्र तत्रास्ति ज्ञानसञ्चेतनान्तरम् ॥ ८५० ॥ - अर्थ- आपकी यह प्रतिज्ञा है कि संक्रान्तिके रहते हुए अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान होता है, जब ऐसी प्रतिज्ञा है तो क्या आत्मासे भिन्न पदार्थोंमें भी ज्ञान संचेतनान्तर होता है ? भावार्थ – पहले कहा गया है कि मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चारों ज्ञान संक्रमणात्मक हैं, मतिज्ञानमें ज्ञान चेतना भी आ गई इसलिये वह भी संक्रमणात्मक हुई, इसी विषय में कोई शंका करता है कि ज्ञान चेतना शुद्धात्मानुभवको कहते हैं और संक्रान्ति ज्ञान चेतना में मानते ही हो, तब क्या आत्माको पहले जानकर ( आत्मानुभव करके ) पीछे उसको छोड़कर दूसरे पदार्थोंमें दूसरी ज्ञान चेतना होती है ? यदि होती है तो शुद्धात्माको
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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