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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। अर्थ--पहले अंगोंकी तरह प्रभावना अंग भी स्वात्मा और परात्माके भेदसे दो प्रकार है । उन दोनोंमें पहला सर्वोत्तम है और उपादेय है । इसके पीछे दूसरा भी ग्राह्य है। उत्कर्षउत्कर्षों यवलाधिक्यादधिकीकरणं वृषे । असत्सु प्रत्यनीकेषु नालं दोषाय तत्वचित् ॥ ८१६ ॥ अर्थ-विपक्षके न होने पर बल पूर्वक धर्ममें वृद्धि करना, इसीका नाम उत्कर्ष है। प्रभावना अंग दोषोत्पादक कभी नहीं होसकता है। अपनी प्रभावनामोहारातिक्षतेः शुद्धः शुद्धाच्छुद्धतरस्ततः । जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावना ॥ ८१७॥ अर्थ--मोहरूपी शत्रुका नाश होजानेसे जीव शुद्ध होजाता है, कोई शुद्धसे भी अधिक शुद्ध होजाता है और कोई उससे भी अधिक शुद्ध होजाता है इस प्रकार अपने आत्माका उत्कर्ष बढ़ाना इसीका नाम स्वात्मप्रभावना है। इस शुद्धिमें पौरुष कारण नहीं हैनेदं स्यात्पौरुषायत्तं किन्तु नूनं स्वभावतः । ऊर्ध्वमूर्ध्वगुणश्रेणौ यतः सिद्धिर्यथोत्तरम् ॥८१८ ॥ अर्थ--इस प्रकारका उत्कर्ष करना पौरुषके अधीन नहीं है किन्तु स्वभावसे ही होता है । और उत्तरोत्तर श्रेणीके क्रमसे असंख्यात गुणी निर्जरा होनेसे उसकी सिद्धि होती है। बाह्य प्रभावना। बाह्यः प्रभावनाङ्गास्ति विद्यामन्त्रादिभिर्बलैः ।। तपोदानादिभिजैनधर्मोत्कर्षों विधीयताम् ॥ ८१९ ॥ अर्थ-विद्याके बलसे, मन्त्रादिके बलसे, तपसे तथा दानादि उत्तम कार्योंसे जैनधर्मका उत्कर्ष (आधिक्य) बढ़ाना चाहिये इसीको बाह्य प्रभावना कहते हैं। और भीपरेषामपकर्षाय मिथ्यात्वोत्कर्षशालिनाम् । , चमत्कारकरं किञ्चित्तद्विधेयं महात्मभिः ॥ ८२० ॥ अर्थ-जो लोग मिथ्या क्रियाओंके बढ़ानेमें लगे हुए हैं ऐसे पुरुषोंको नीचा दिखानेके लिये अथवा उनकी हीनता प्रकट करनेके लिये महात्माओं को कुछ चमत्कार करनेवाले प्रयोग भी करना चाहिये।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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