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________________ २१८ ] पञ्चाध्यायी। दूसरा - - __ स्वोपकार पूर्वक ही परोपकार ठीक हैधर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहःपरे ।। नात्मव्रतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥ ८.४॥ अर्थ-धर्मका आदेश और धर्मका उपदेश देकर दूसरों पर अनुग्रह करना चाहिये । परन्तु आत्मीय व्रतमें किसी प्रकारकी बाधा न पहुंचा कर ही दूसरोंके रक्षणमें तत्पर रहना उचित है । अन्यथा नहीं। ग्रन्थान्तरआदहिदं कादव्वं जइ सकइ परहिदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥ ८०५ ॥ अर्थ-सबसे प्रथम अपना हित करना चाहिये । यदि अपना हित करते हुए जो पर हित करनेमें समर्थ है उसे परहित भी करना चाहिये । आत्महित और परहित इन दोनोंमें आत्महित ही उत्तम है उसे ही प्रथम करना चाहिये । भावार्थ-इन दो कारिकाओंसे यह बात भली भांति सिद्ध हो जाती है कि मनुष्यका सबसे पहला कर्तव्य आत्महित है, विना आत्म कल्याण किये वास्तवमें आत्म कल्याण हो भी नहीं सकता है। जहां पर सर्वोपरि उच्च ध्येय है वहां भी आत्म हित ही प्रमुख है । आचार्य यद्यपि मुनियोंका पूर्ण हित करते हैं, उन्हें मोक्ष मार्गपर लगाते हैं, तथापि उस अवस्थामें रहकर उनको उच्च ध्येय नहीं मिल सक्ता है । जिस समय वे उस उच्च ध्येय मुक्तिको प्राप्त करना चाहते हैं उस समय उस आचार्य पदका त्याग कर स्वात्म भावन मात्र-साधु पदमें आ जाते हैं इसलिये यह ठीक है कि आत्म हित ही सर्वोपरि है । आत्म हित स्वार्थमें शामिल नहीं किया जा सकता है । जो सांसारिक वासनाओंकी पूर्तिके लिये प्रयत्न किया जाता है उसे ही स्वार्थ कहा जा सक्ता है उसका कारण भी यही है कि स्वार्थ उसे ही कह सकते हैं जो प्रमाद विशिष्ट है, आत्महित करनेवाला प्रमाद विशिष्ट नहीं है इसलिये उसे स्वार्थी कहना भूल है । इस कथनसे हम परोपकारका निषेध नहीं करना चाहते हैं, परोपकार करना तो महान् पुण्य बन्धका कारण है। परन्तु जो लोग परोपकार करते हुए स्वयं भ्रष्ट हो जाते हैं अथवा आत्म हितको जो स्वार्थ बताते हैं वे अवश्य आत्म हितसे कोशों दूर हैं, आचार्योने परोपकारको भी स्वार्थ साधन ही बतलाया है। यहां पर यह शंका की जासक्ती है कि कहीं पर परोपकारार्थ स्वयं भ्रष्ट भी होना पड़ता है जैसे कि विष्णुकुमार मुनिने मुनियोंकी रक्षाके लिये अपने पदको छोड़ ही दिया ? शंका ठीक है। कहीं पर विशेष हानि देखकर ऐसा भी किया जाता है परन्तु आत्म हितको गौण कहीं नहीं समझा जाता है। विष्णुकुमारने अगत्या ऐसा किया तथापि उन्होंने शीघ्र ही प्रायश्चित्त लेकर स्वपदका ग्रहण कर लिया। आजकल तो आत्म कल्याण परोपकारको ही लोगोंने समझ रक्खा
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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