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________________ vvvvvvvv nnMAA पञ्चाध्यायी। [ दूसरा अर्थ-अर्थात् यही तो जिनमतका उपदेश है और यही जिनमतका आदेश है कि सर्व साक्ग्रयोगकी निवृत्तिको व्रत कहते हैं। सर्व सावद्ययोग (हिंसा) कास्वरूप-- सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिर्वत्तिर्यदर्थतः। प्राणच्छेदो हि सावा सैव हिंसा प्रकीर्तिता ॥७५०॥ योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो यः स स्मृतो योग इत्यपि ॥ ७५१॥ अर्थ-सर्व सावद्य योगका शब्दार्थ करते हुए प्रत्येक शब्दका अर्थ करते हैं -सर्व शब्दका अर्थ है अन्तरंग और वहिरंग व्यापार, सावद्य शब्दका अर्थ है प्राणोंका छेद करना, इसीका नाम हिंसा है। योग शब्दका अर्थ है उस सर्व सावद्य (हिंसा)के विषयमें उपयोग लगाना, उपयोग दो प्रकारका है, एक बुद्धि पूर्वक, दूसरा सूक्ष्म-अबुद्धि पूर्वक, इस प्रकार योगके दो भेद हो जाते हैं। भावार्थ-अन्तरंग और वहिरंग प्राणोंका नाश करनेके लिये उपयोगको लगानेका नाम ही सर्व सावध योग कहलाता है। अर्थात् हिंसाकी तरफ परिणामोंको लगाना, इसीका नाम सर्व सावद्य योग है । अन्तरंग सावद्य-भाव प्राणोंका नाश करना और बाह्य सावद्य-द्रव्य प्राणोंका नाश करना है। बुद्धि पूर्वक हिंसा करने के लिये उद्यत चित्त होना स्थूल सावध योग है और कर्मोदयवश-अज्ञात भावोंसे हिंसाके लिये परिणामोंका उपयुक्त होना सूक्ष्म सावद्य योग है। व्रतका स्वरूप तस्याभावन्निवृत्तिः स्याद् व्रतं वार्थादिति स्मृतिः। अंशात्सायंशतस्तत्सा सर्वतः सर्वतोपि तत् ।। ७५२॥ अर्थ--उस सर्व सावद्ययोगका अभाव होनेका नाम ही सर्व सावद्ययोग निवृत्ति कहलाती है, उसीका नाम व्रत है। यदि सर्व सावध योगकी निवृत्ति अंश रूपसे है तो व्रत भी अंश रूपसे है, और यदि वह सर्वांश रूपसे पूर्णतासे) है तो व्रत भी पूर्ण है। अन्तर्वत और बाह्यव्रतसर्वतः सिद्धमेवैतद्वतं बाह्य दयागिषु । व्रतमन्तः कषायाणां त्यागः सैवात्मनि कृपा ॥ ७५३ ॥ अर्थ--यह बात निर्णीत है कि प्राणियोंमें दया करना बाह्य व्रत कहलाता है और कषायोंका त्याग करना अन्तर्वत कहलाता है तथा यही अन्तर्ब्रत निजात्मा पर दयाभाव कहलाता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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