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________________ अध्याय सुबोधिनी टीका। । १८७ अर्थ--श्रावकोंको जिन मन्दिर बनवाने में सदा सावधान रहना चाहिये, अपनी सम्पत्तिके परिमाणके अनुसार जिन मन्दिरोंकी रचना अवश्य कराना चाहिये । जिन चैत्य गृह (मन्दिर) बनवाने में थोड़ासा आरम्भननित पाप लगता है इस लिये मन्दिर बनवानेमें दोष हो ऐसा नहीं है । भावार्थ--यह बात अच्छी तरह निर्गीत है कि जैता द्रव्य क्षेत्र काल भावका प्रभाव होता है पुरुषोंकी आत्माओंमें भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है। जिस समय किसी दुष्ट पुरुषका समागम हो जाता है उसके निमित्तसे प्रतिसमय परिणाम खराब ही रहते हैं, और जिस समय किसी सज्जन का समागम होता है उस समय मनुप्यके परिणाम उसके निमित्तसे उज्वल होते चले जाते हैं, यह प्रभाव द्रव्यका ही समझना चाहिये। इसी प्रकार कालका प्रभाव आत्मा पर पड़ता है। रात्रि में मनुष्यके परिणाम दूसरे प्रकारके हो जाते हैं और प्रातःकाल होते ही बदल कर उत्तम हो जाते हैं । जो वासनाएं रात्रिमें अपना प्रभाव डालती हैं वे अनायास ही प्रातःकाल दूर हो जाती हैं, यह कालका प्रभाव समझ ना चाहिये । इसी प्रकार क्षेत्रका प्रभाव पूर्णतासे आत्मापर प्रभाव डालता है-जो परिणाम घरमें रहते हैं, वे परिणाम किसी साधुनिकेतनमें जानेसे नहीं रहते हैं, जो बातें हमारे हृदयमें विकार करने वाली उत्पन्न हुआ करती हैं वे उस निकेतनमें पैदा ही नहीं होती हैं उसी प्रकार जो हमारे परिणाम धर्म साधनकी •ओर सर्वथा नहीं लगते हैं वे मन्दिर में जाकर स्वयं लग जाते हैं। मन्दिर ही धर्मसाधनका मूल कारण है। मन्दिरमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, चारों निमित्तों की पूर्ण योग्यता है। वहीं हम एकान्त पाते हैं। वहीं तत्त्वचर्चाका स्वाद हमारे कानों में प्रविष्ट होता रहता है, और वहीं पर श्री जिनेन्द्रकी वीतरा छवि हमारे आत्मीक भावों का विकाश करती है। आजकल तो जितना धर्म साधन और परिणामोंकी निर्मलता जिनेन्द्र स्तवन तथा उनकी पूजनसे होती है वैसी निर्मलता और धर्मसाधन अन्यथा नहीं हो सका है। इसका कारण भी यह है कि आजकलके संहनन और मनोवृत्तियोंकी चञ्चलता कुछ दूसरे ही प्रकारकी है। अधिक समय तक न तो हम ध्यान ही कर सक्त हैं, और न शुभ परिणाम ही रख सक्ते हैं। आत्म चिन्तवन तो बहुत दूर पड़ जाता है इसलिये हम लोगों के लिये अबलम्बनकी बड़ी आवश्यकता है, और वह अवलम्बन जिनेन्द्रकी वीतराग मुद्रा है, उस वीतराग प्रतिमाके सामने बहुत देर तक हमारे भाव लगे रहते हैं बल्कि यों कहना चाहिये कि जितनी देर हम उस प्रतिमाके सामने उपयोग लगाते हैं उतनी देर तक हमारे परिणाम वहांसे खिंचकर दूसरी ओर लगते ही नहीं है। ध्यानका माहात्म्य यद्यपि बहुत बढ़ा है परन्तु मनोवृत्तियोंकी चञ्चलताके संस्कार तुरन्त ही वहांसे उपयोग हटा देते हैं, जिनेन्द्र पूजन और जिनेन्द्र स्तवनमें यह बात नहीं है। जितनी २ भक्ति पुण्यमय स्तोत्रों द्वारा हम करते हैं उतना २ ही हमारा परिणाम भक्ति रससे उमड़ने लगता है, वही
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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