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अध्याय।]
सुबोधिनी टीका।
सभी क्रियायें अनिष्ट ही हैंअनिष्टफलवत्त्वात् स्यादनिष्टार्था व्रतक्रिया ।
दुष्टकार्यानुरूपस्य हेतोर्दुष्टोपदेशवत् ॥५६८॥
अर्थ-जितनी भी व्रत--क्रिया हैं सब अनिष्टार्थ हैं क्योंकि अनिष्ट फल वाली हैं। जिस प्रकार दुष्ट पुरुषका उपदेश दुष्ट--कार्यको पैदा करता है, उसी प्रकार यह भी दुष्ट-कार्यको उत्पन्न करने वाली हैं।
___व्रत क्रिया स्वतन्त्र नहीं है-- अथाऽसिद्ध स्वतन्त्रत्त्वं क्रियायाः कर्मणः फलात् । कृते कर्मोदया तोस्तस्याश्चाऽसंभवो यतः ॥ ५६९ ॥
अर्थ-पहले यह शंका की गई थी कि क्रिया स्वतन्त्र होती है, उसका कर्ता सम्यग्दृष्टि है ? सो वास्तवमें ठीक नहीं है। क्रिया कर्मके फलसे होती है अथवा कर्मका फल . है । इसलिये क्रियाको स्वतन्त्र बतलाना असिद्ध है क्योंकि कर्मोदयरूप हेतुके विना क्रियाका होना ही असंभव है।
क्रिया-औदायकी हैयावदक्षीणमोहस्य क्षीणमोहस्य चाऽऽत्मनः । यावत्यस्ति क्रिण नाम तावत्यौदयिकी स्मृता ॥ ५७० ॥
अर्थ-जिस आत्माका मोह क्षीण होगया है अथवा जिसका क्षीण नहीं हुआ है, दोनों ही की जितनी भी क्रिया हैं सभी औदयिकी अर्थात् कर्मके उदयसे होनेवाली हैं।
पौरुषो न यथाकामं पुंसः कर्मोदितं प्रति ।
न परं पौरुषापेक्षो दैवापेक्षो हि पौरुषः ॥ ५७१॥
अर्थ-पुरुषका पुरुषार्थ कर्मोदयके प्रति भर सक उपयुक्त नहीं होता, और पुरुषार्थ केवल पुरुषार्थसे भी नहीं होता किन्तु दैव ( कर्म ) से होता है । भावार्थ-पुरुषार्थ कर्मसे होता है इसलिये क्रिया औदयिकी है।
निष्कर्षसिद्धो निष्कांक्षितो ज्ञानी कुर्वाणोण्युदितां क्रियाम् । निष्कामतः कृतं कर्म न रागाय विरागिणाम् ॥ ५७२ ॥
अर्थ-यह वात सिद्ध हुई कि सम्यग्ज्ञानी उदयरूपा क्रियाको करता हुआ भी नि:कांक्षित है अर्थात् आकांक्षा रहित है । विरागियोंका विना इच्छाके किया हुआ कर्म रागके लिये नहीं होता है।