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________________ पञ्चाध्यायी । [ दूसरा भावार्थ- सम्यग्दृष्टिने आत्माका स्वरूप अच्छी तरह समझ लिया है, इतना ही नहीं किन्तु स्वात्मसंवेदन जनित सुखका भी वह स्वाद ले चुका है इसलिये उसे ऐसी मिथ्या भ्रान्ति कि आत्मा भी कभी नष्ट होजायगा कभी नहीं हो सक्ती । १४४ शरणं पर्ययस्यास्तंगतस्यापि सदन्वयात् । तमनिच्छन्निवाज्ञः स त्रस्तोस्त्यत्राण साध्वसात् ॥ ५३३ ॥ अर्थ -- वास्तव में पर्यायका नाश होनेपर भी आत्मसत्ताकी श्रृंखला सदा रहेगी और वह आत्मसत्ता ही शरण है परन्तु मूर्ख - मिथ्यादृष्टि इस वातको नहीं मानता हुआ अत्राण भय ( आत्माकी रक्षा कैसे हो इस भयसे ) सदा दुःखी रहता है । सम्यग्दृष्टी -- सदृष्टिस्तु चिदशैः स्वैः क्षणं नष्टे चिदात्मनि । पश्यन्नष्टमिवात्मानं निर्भयत्राणभीतितः ॥ ५३४ ॥ अर्थ - - सम्यग्दृष्टी तो आत्माको पर्यायकी अपेक्षासे नाश मानता हुआ भी अत्राण भयसे सदा निडर रहता है । वह आत्माको नाश होती हुई सी देखता है तथापि वह निडर है | सिद्धान्त कथन -- द्रव्यतः क्षेत्रतश्चापि कालादपि च भावतः । नाsत्राणमंशतोप्यत्र कुतस्तद्धि महात्मनः ॥ ५३५ ॥ अर्थ - इस आत्माका अथवा इस संसार में किसी भी पढ़ार्थका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा से अंशमात्र भी अरक्षण ( नाश ) नहीं होता है तो फिर महान् पदार्थ आत्मा-- महात्माका नाश कैसे हो सक्ता है ? अगुप्ति भयदृङ्मोहस्योदयाद्बुद्धिः यस्यचैकान्तवादिनी । तस्यैवागुप्ति भीतिः स्यान्नूनं नान्यस्य जातुचित् ॥ १३६ ॥ अर्थ — दर्शनमोहनीयके उदयसे जिसकी बुद्धि एकान्तकी तरफ झुक गई है उसीके अगुप्ति-भय होता है । जिसके दर्शनमोहनीयका उदय नहीं हैं उसके कभी भी ऐसी बुद्धि नहीं होती। मिथ्यादृष्टी असज्जन्म सतोनाशं मन्यमानस्य देहिनः । कोवकाशस्ततो मुक्तिमिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात् ॥ २३७ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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