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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । शङ्काकार- ननु सन्ति चतस्रोपि संज्ञास्तस्यास्य कस्यचित् । अर्वाक् च तत्परिच्छेदस्थानादस्तित्वसंभवात् ॥ ४९८ ॥ अर्थ — शङ्काकार कहता है कि किसी२ सम्यग्दृष्टी के भी चारों (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ) ही संज्ञायें होती हैं। जहां पर उन संज्ञाओंकी समाति बतलाई गई है उनसे पहले २ उनका अस्तित्व होना संभव ही है ? [ १३७ पुनः शङ्काकार तत्कथं नाम निर्भीकः सर्वतो दृष्टिवानपि । अप्यनिष्टार्थसंयोगादस्त्यध्यक्षं प्रयत्नवान् ॥ ४९९ ।। अर्थ — शङ्काकार कहता है कि जब सम्यग्दृष्टीके चारों संज्ञायें पाई जाती हैं तो फिर वह सम्यग्दर्शनका धारी होने पर भी सर्वदा निर्भीक किस प्रकार कहा जा सक्ता है और अनिष्ट पदार्थों का संयोग होने पर वह उनसे बचनेके लिये प्रयत्न भी करता है । वह बात प्रत्यक्ष देखते ही हैं ? उत्तर सत्यं भीकोपि निर्भीकस्तत्स्वामित्त्वाद्यभावतः । रूपि द्रव्यं यथा चक्षुः पश्यदपि न पश्यति ॥ ५०० ॥ अर्थ — यह बात ठीक है कि सम्यग्दृष्टी के चारों संज्ञायें हैं और वह भयभीत भी है। परन्तु वह उन संज्ञाओंका अपनेको स्वामी नहीं समझता है, किन्तु उन्हें कर्मजन्य उपाधि समझता है । जिस प्रकार द्रव्यचक्षु (द्रव्येन्द्रिय) रूपी क्रयको देखता हुआ भी वास्तवमें नहीं देखता है । भावाथ -- जिस प्रकार मिध्यादृष्टि चारों संज्ञाओंमें तल्लीन होकर अपनेको उनका स्वामी समझता है, अर्थात् आहारादिको अपना ही समझता है उस प्रकार सम्यग्दृष्टि नहीं समझता, किन्तु उन्हें कर्मका फल समझता है । लोक में द्रव्यचक्षु पुगलको देखनेवाला दीखता है परन्तु वास्तव में देखनेवाली भावेन्द्रिय है । ३० १८ कर्मका प्रकोप -- सन्ति संसारिजीवानां कर्माशाश्चोद्यागताः । _मुह्यन् रज्यन् द्विषैस्तत्र तत्फलेनो युज्यते ॥ ५०१ ॥ अर्थ — संसारि जीवोंके कर्म - परमाणु उदयमें आते रहते हैं । उनके फऱमें यह जीव मोह करता है, राग करता है, द्वेष करता है और तल्लीन होजाता है । एतेन हेतुना ज्ञानी निःशङ्को न्यायदर्शनात् । देशतोष्यत्र मूर्च्छायाः शङ्काहेतोरसंभवात् ॥ ५०२ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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