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११८ ] पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा अर्थ-तत्त्वार्थ ( जीवादि तत्त्व )के सन्मुख बुद्धिका होना अर्थात् तत्त्वार्थके जाननेके लिये उद्यत बुद्धिका होना श्रद्धा कहलाती है। और तत्त्वार्थमें आत्मीक भावका होना रुचि कहलाती है। "वह उसी प्रकार है" ऐसा स्वीकार कस्ना प्रतीति कहलाती है और उसके अनुकूल क्रिया करना चरण-आचरण कहलाता है।
भामर्थ-श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, और आचारण (चारित्र) ये चारों ही क्रमसे होते हैं। "तत्त्वार्षश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्रमें जो श्रद्धानका लक्षण है, वह इस श्लोकमें कही हुई श्रद्धाले सर्वथा भिन्न है । परन्तु वास्तवमें अपेक्षाकृत ही भेद है । तत्त्वार्थ श्रद्धान और प्रतीति, दोनों एक ही बात हैं। प्रतीतिमें तत्त्वार्थकी स्वीकारता है और श्रद्धान भी इसीका नाम है कि वस्तुको जान कर उसे उसी रूपसे स्वीकार करना । श्रद्धानकी श्रद्धा पूर्व पर्याय है। यही अपेक्षाकृत भेद है।
श्रद्धादिके कहने का प्रयोजनअर्थादायत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्पैवात्र य॑यात् ।
चरणं वाकायचेतोभिापारः शुभकर्मसु ॥ ४१३ ॥
अर्थ-श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, ये तीनों ही ज्ञान स्वरूप हैं क्योंकि तीनों ही ज्ञानकी पर्याय हैं । तथा आचरण-चारित्र-मन, वचन, कायका शुभ कार्यों में होने वाला व्यापार है।
___श्रद्धादिक सम्यग्दर्शनके विना भी होसक्ते हैं-- . व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सदृष्टलक्षणं न वा ।
सपक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यहा न सन्ति वा ॥४१४॥
अर्थ:-श्रद्धा, रुचि आदि चारों ही सम्यग्दृष्टिके लक्षण हो भी सक्ते हैं और नहीं भी होसक्ते । यदि ये सम्यग्दृष्टिके लक्षण हों तो भिन्न भिन्न अवस्थामें भी होसक्ते हैं, और समुदाय अवस्थामें भी होसक्ते हैं। चाहे ये सम्यग्दृष्टिके सपक्षमें हों चाहे विपक्षमें हों, अर्थात् सम्यग्दर्शनके साथ२ हों अथवा मिथ्या दर्शनके साथ२ हों कुछ नियम नहीं है। अथवा श्रद्धादिक सम्यग्दृष्टिके हों या न भी हों, ऐसा भी कुछ नियम नहीं है।
भावार्थ--श्रद्धादिक सम्यग्दृष्टिके भी होसक्ते हैं और मिथ्यादृष्टिके भी हो सक्ते हैं। भिन्न २ भी हो सके हैं और समस्त भी हो सक्ते हैं । सम्यग्दर्शनके होने पर हो भी जावे और न भी हों, ऐसा कुछ भी नियम नहीं है ।
___सम्यग्दर्शनके विना श्रद्धादिक गुण नहीं हैं--- स्वानुभूतिंसनाथाश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः।
स्वानुभूति विनाऽऽभासा नार्थाच्छ्हादयो गुणाः ॥ ४१५ ॥ अर्थ-गदि श्रद्धादिक गुण स्वानुभूतिके साथ हों तो वे गुण ( सम्यग्दर्शनके लक्षण)