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११२ ] पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा बोधको ही आकार कहते हैं अर्थात् पदार्थोंका जानना ही आकार कहलाता है। यह ज्ञानका ही स्वरूप है।
अनाकारतानाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता।
शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ॥ ३९२ ॥
अर्थ-आकारका स्वरूप ऊपर कह चुके है । उस आकारका न होना ही अनाकार कहलाता है। उसीका नाम वास्तवमें निर्विकल्पता है । वह निर्विकल्पता अथवा अनाकारता ज्ञानको छोड़ कर बाकी सभी अनन्तगुणोंका लक्षण है।
भावार्थ-जिसके द्वारा पदार्थका विचार हो सक, स्वरूप विज्ञान हो सके वह विकल्पात्मक कहलाता है। ऐसा ज्ञान ही है बाकीके सभी गुण न तो कथनमें ही आसक्ते हैं, और न स्पष्टतासे स्वरूप ही उनका कहा जा सक्ता है । इस लिये वे निर्विकल्पक हैं । ज्ञान स्वपरस्वरूप निश्चायक है इस लिये वह विकल्पात्मक है और बाकीके गुण इससे उल्टे हैं।
___ शङ्काकारनन्वस्ति वास्तवं सर्व सत्सामान्यं विशेषवत् । तरिक किश्चिदनाकारं किञ्चित्साकारमेव तत् ॥ ३९३ ॥
अर्थ—सत्सामान्य और सत् विशेष दोनों ही वास्तविक हैं तो फिर कोई अनाकार है और कोई साकार है ऐसा क्यों ?
उत्तर-- सत्यं सामान्यवज्ज्ञानमर्थाच्चास्ति विशेषवत्। __ यत्सामान्यमनाकारं साकारं यदिशेषभाक् ॥ ३९४ ॥
अर्थ-यह बात ठीक है कि ज्ञान दोनों ही प्रकारका होता है । सामान्य रीतिसे और विशेष रीतिसे । उन दोनोंमें जो सामान्य है वह अनाकार है और जो विशेष है वह साकार है।
___भावार्थ-सबसे पहले इन्द्रिय और पदार्थका संयोग होनेपर जो वस्तुका सत्तामात्र बोध होता है उसीका नाम दर्शन है। उसमें वस्तुका निर्णय नहीं होपाता । दर्शन ज्ञानके पूर्व होने वाली पर्याय है। उसके पीछे जो वस्तुका ज्ञान होता है कि यह अमुक वस्तु है इसीका नाम अवग्रहात्मक ज्ञान है । फिर उत्तरोत्तर विशेष बोध होता है उसको क्रमसे ईहा, अवाय, धारणा कहते हैं । जिस प्रकार दर्पणका स्वभाव है कि उसके भीतर पदार्थका प्रतिबिम्ब पड़नेसे वह दर्पण पदार्थाकार हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानका स्वभाव है कि वह भी जिस पदार्थको विषय करता है उसी पदार्थके आकार होजाता है। पदार्थाकार होते ही उस