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________________ १०८] पश्चाध्यायी। [ दूसरा होती है । कर्मोके क्षयोपशम होनेपर आत्मामें जो विशुद्धता होती है, उसीका नाम विशुद्धि लब्धि है। किसी मुनि आदिकके उपदेशकी प्राप्तिको देशना लब्धि कहते हैं । कर्मोंकी स्थिति घट कर अंतः कोटा कोटि मात्र रह जाय इसीका नाम प्रायोगिकी लब्धि है। आत्माके परिणामोंमें जो कर्मोकी स्थिति खण्डन और अनुभाग खण्डनकी शक्तिका पैदा होना है इसीका नाम करणलब्धि है । करणरब्धि तीन प्रकार है । अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । अधःकरणके असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं। एक समयमें रहने वाले अथवा भिन्न २ समयमें रहने वाले जीवोंके परिणामोंमें समानता भी हो सक्ती है अथवा असमानता भी हो सक्ती है परन्तु अपूर्वकरणमें एक समयमें रहनेवाले जीवोंमें तो समानता और असमानता हो सकती है, परंतु भिन्न २ समयोंमें रहनेवाले जीवोंमें समानता नहीं होसक्ती किन्तु नवीन २ ही परिणाम होते हैं । इस करणके परिणाम अधःकरणसे असंख्यात लोकगुणित हैं। अनिवृत्तिकरणमें एक समयमें एक ही परिणाम होता है। जितने भी जीव उस समयमें होंगे सबोंके एक ही परिणाम होगा । दूसरे समयमें दूसरा ही परिणाम सवोंके होगा इस करणके परिणाम उसके कालके समयोंके बराबर हैं। ये पांचो लब्धियां सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें कारण हैं । परन्तु इतना विशेष है कि पहली चारोंके होने पर सम्यग्दर्शनका होना जरूरी नहीं हैं लेकिन करणलब्धि तभी होती है जब कि सम्यग्दर्शन प्राप्तिमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहजाता है अर्थात् करणलब्धिके होनेपर अन्तर्मुहूर्त बाद अवश्य ही सम्यग्दर्शन होजाता है। और भी सामग्री काललब्धि आदिक सम्यक्त्वप्राप्तिमें कारण हैं। इन सबोंके होनेपर फिर कहीं सम्यक्त्व प्रकट होता है। ___ यहां पर श्लोकके तीसरे चरणमें पड़े हुए "भव्यभावविपाकाद्वा” इस वाक्यका यह आशय है कि जिस समय आत्मामें मिथ्यात्व कर्मका उदय रहता है उस समय उस भव्यत्व गुणका अपक्कपरिणमन ( अशुद्ध अवस्था ) रहता है । सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय उस गुणका विपक्क परिणमन होजाता है अर्थात् वह अपने परिणाममें आजाता है इसी आशयसे स्वामी उमास्वामि आचार्यवर्यने "औपशमिकादि भव्यत्वानाञ्च " इस सूत्रद्वारा मुक्तावस्थामें भव्यत्वभावका नाश बतला दिया है। वास्तवमें भव्यत्वभाव पारिणामिक गुण है, उसका नाश हो नहीं सक्ता । परन्तु उसका आशय यही है कि भव्यभावका जो मिथ्यात्व अवस्थामें अपक्व परिणमन हो रहा था उसका नाश हो जाता है अर्थात् उस भव्यत्व गुणकी मलिन पर्यायका नाश होजाता है। उसकी निर्मल पर्याय सिद्धोंमें सदा रहती है। पर्याय नाशकी अपेक्षासे ही उक्त सूत्र कहा गया है। प्रयत्नमन्तरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमानं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ॥ ३७९ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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