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अध्याय।
सुबोधिनी टीका ।
ज्ञान और आनन्द आत्माके गुण हैंज्ञानानन्दौ चितो धर्मो नित्यौ द्रव्योपजीविनौ। देहेन्द्रियाद्यभावेपि नाभावस्तव्योरिति ॥ ३४९॥
अर्थ-ज्ञान और आनन्द (सुख) ये दोनों ही आत्माके धर्म हैं, वे नित्य हैं और द्रव्योपजीवी (भावात्मक) गुण हैं। इसलिये शरीर और इन्द्रियोंके अभावमें भी उनका अभाव नहीं हो सक्ता (प्रत्युत वृद्धि होती है )
गुणपनेकी सिद्धिसिद्धं धर्मत्वमानन्दज्ञानयोर्गुणलक्षणात् ।
यतस्तत्राप्यवस्थायां किञ्चिद्देहेन्द्रियं विना ॥ ३५० ॥
अर्थ-ज्ञान और आनंद आत्माके धर्म हैं, यह वात सिद्ध है, क्योंकि गुणका लक्षण इनमें मौजूद है, तथा शरीर और इन्द्रियोंके बिना भी ये पाये जाते हैं।
भावार्थ-गुणका लक्षण यही है कि अनुवर्तिनो गुणा:, जो सदा साथ रहें वे गुण हैं। ज्ञान और आनन्द दोनों ही शरीर, इन्द्रिय रहित अवस्थामें भी आत्माके साथ पाये जाते हैं । इसलिये ये आत्माके ही धर्म हैं।
____ ज्ञानादिका उपादान आत्मा ही हैमतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ॥ ३५१ ॥
अर्थ-मतिज्ञान आदिके समय जो शरीर, इन्द्रियां और उनके विषयभूत-पदार्थ कारण हैं वे केवल बाह्य हेतु हैं, इसलिये अहेतुके ही समान हैं। ज्ञानादिकमें अन्तरंग-उपादान हेतु तो आत्मा ही है, इसलिये आत्माके ही ज्ञान, सुख धर्म हैं।
___ आत्मा स्वयं ज्ञानादि स्वरूप हैसंसारे वा विमुक्तौ वा जीवो ज्ञानादिलक्षणः । स्वयमात्मा भवत्येष ज्ञानं वा सौख्यमेव वा ॥ ३५२॥
अर्थ-आत्मा चाहे संसारमें हो, चाहे मुक्तिमें हो, कहीं भी क्यों न हो, सदा ज्ञान, सुख, दर्शन, वीर्य आदि लक्षणोंवाला है। स्वयं आत्मा ही ज्ञानरूप होजाता है और स्वयं ही सुखमय होजाता है।
___ स्पर्शादिक केवल निमित्त मात्र हैंस्पर्शादीन् प्राप्य जीवश्च स्वयं ज्ञानं सुखं च तत्। . अर्थाः स्पर्शादयस्तत्र किं करिष्यन्ति ते जडाः ॥ ३५३ ॥