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________________ अध्याय ।] सुबोधिनी टीका। अर्थ-उदयोपाधि दुःखरूप है, यह बात असिद्ध नहीं है । क्योंकि वह कर्मोके ही फल स्वरूप है । जो कर्मोका फल होता है वह दुःख रूप होता ही है, यह बात परमागमसे प्रसिद्ध है। आत्मा महा दुखी हैबुद्धिपूर्वकदुःखेषु दृष्टान्ताः सन्ति केचन । ___ नाबुद्धिपूर्वके दुःखे ज्ञानमात्रैकगोचरे ॥ ३०८ ॥ अर्थ-दुःख दो प्रकारका होता है-एक बुद्धिपूर्वक, दूसरा अबुद्धिपूर्वक । जो दुःख प्रत्यक्षमें ही मालूम होता है वह दुःख बुद्धिपूर्वक कहलाता है। ऐसे दुःखके अनेक दृष्टान्त हैं। जैसे फोडेकी तकलीफ होना, किसीका किसीको मारना, बीमारी होना आदि, परन्तु अबुद्धि पूर्वक दुःख ज्ञान मात्रके ही गोचर है, उसके दृष्टान्त भी नहीं मिलते ।। . भावार्थ-अबुद्धिपूर्वक दुःख ऐसा दुःख नहीं है जैसा कि प्रत्यक्षमें दीखता है, वह एक प्रकारकी भीतरी गहरी चोट है जिसका विवेचन भी नहीं किया जासक्ता। वह ऐसा ही है जैसे कि किसी रोगीको बेहोशीकी दवा सुंघा कर तकलीफ पहुंचाना । वेहोश किये हुए रोगीको तकलीफ तो अवश्य है, परन्तु उसका ज्ञान उसे स्वयं भी नहीं है। इसीलिये इस अबुद्धिपूर्वक दुःखके सभी संसारी जीव दृष्टान्त होने पर भी व्यक्तताका अभाव होनेसे दृष्टान्ताभाव ही बतलाया है। दोनों दुःखोंके विषयमें आचार्य नीचे कहते हैं बुद्धिपूर्वक दुःखअस्त्यात्मनो महादुःखं गाढं बद्धस्य कर्मभिः। मनःपूर्व कदाचिदै शश्वत्सर्वप्रदेशजम् ॥ ३०९ ॥ . अर्थ-कर्मोंसे गाढ़ रीसिसे बंधे हुए इस आत्माके सम्पूर्ण प्रदेशोंमें होने वाला मन पूर्वक दुःख कभी होता है । परंतु कर्मोंकी परतन्त्रतासे इस आत्माको महादुःख संसारी अवस्थामें सदा ही रहा करता है। वृद्धिपूर्वक दुःखको सिद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं हैअस्ति स्वस्यानुमेयत्वाद् बुद्धिजं दुःखमात्मनः। सिद्धत्वात्साधनेनालं वर्जनीयो वृथा श्रमः ॥ ३१० ॥ अर्थ-आत्माका, जो दुःख बुद्धिपूर्वक होता है वह तो अपने आप ही अनुमान किया जासक्ता है । इसलिये वह सिद्ध ही है, उसके सिद्ध करनेके लिये हेतु देनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जो वात सुसिद्ध है उसमें परिश्रम करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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