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• कालतत्त्व : प्राचीन संदर्भ •
III आदि भाव होते हैं, तब फिर काल को मनुष्यक्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है ? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष्चक्र के संचार की अपेक्षा रखता है ? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोकव्यापी हो कर ज्योतिष्चक्र के संचार की मदद नहीं ले सकता ? इसलिये उसको मनुष्यक्षेत्रप्रमाण मानने की कल्पना स्थूल लोकव्यवहार पर निर्भर है। काल को अणुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्गलपरमाणु को ही उपचार से कालाणु समझना चाहिये और कालाणु के अप्रदेशत्व के कथन की सङ्गति इसी तरह कर लेनी चाहिये।
ऐसा न मान कर कालाणु को स्वतन्त्र मानने में प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्मअस्तिकाय की तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके सिवाय एक यह भी प्रश्न है कि जीवअजीव के पर्याय में तो निमित्तकारण समयपर्याय है। पर समय-पर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वाभाविक होने से अन्य निमित्त की अपेक्षा नही रखता तो फिर जीव-अजीव के पर्याय भी स्वाभाविक क्यों न माने जायें ? यदि समयपर्याय के वास्ते अन्य निमित्त की कल्पना की जाय तो अनवस्था आती है। इसलिये अणुपक्ष को औपचारिक मानना ही ठीक है।
वैदिकदर्शन में काल का स्वरूप :- वैदिकदर्शनी में भी काल के सम्बन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं। वैशेषिकदर्शन - अ. २, आ. २, सूत्र ६-१० तथा न्यायदर्शन, काल को सर्वव्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सांख्य-अ.२, सूत्र १२, योग तथा वेदान्त आदि दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मान कर उसे प्रकृति-पुरुष (जड-चेतन) का ही रूप मानते हैं। यह दूसरा पक्ष, निश्चयदृष्टिमूलक है और पहला पक्ष, व्यवहारमूलक। ___जैनदर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरों में जिसको ‘क्षण' कहा है, उसका स्वरूप जानने के लिये तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टिवालों की व्यवहारनिर्वाह के लिये क्षणानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है। उस बात को स्पष्ट समझने के लिये योगदर्शन, पाठ ३, सू.५२ का भाष्य देखना चाहिये। उक्त भाष्य में कालसंबन्धी जो विचार है, वही निश्चयदृष्टिमूलक, अत एव तात्त्विक जान पड़ता है।
विज्ञान की सम्मति :- आज-कल विज्ञान की गति सत्य दिशा की ओर है। इसलिये कालसम्बन्धी विचारों को उस दृष्टि के अनुसार भी देखना चाहिये। वैज्ञानिक लोग भी काल को दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं।
अतः सब तरह से विचार करने पर यही निश्चय होता है कि काल को अलग स्वतन्त्र द्रव्य मानने में दृढतर प्रमाण नहीं है। (चौथा कर्मग्रन्थ हिन्दी पुस्तक, द्वितीय अधिकार में मार्गणास्थान अधिकार,
परिशिष्ट-घ, पृष्ठ १५७ से १६०, साभार उद्धृत)