SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गिरिकंदर दुर्गेषु, ये वसति दिगंबराः। पाणिपात्रपुटाहारास्ते यांति परमां गतिम् ।।4।। (ये) जो (दिगंबरा) दिगंबर/वीतरागी/निग्रंथ साधु (गिरिकंदर दुर्गेषु) गिरि/पर्वतों में, पर्वतों की कन्दराओं में और (दुर्गेषु) भीषण जंगलों में (वसंति) रहते हैं, (पाणिपात्र पुटाहाराः) हाथ रूपी पात्र की अंजुली में आहार लेते हैं; (ते) वे (परमां गतिम्) (मरणोत्तर) समाधि कर उत्तम गति को (यांति) जाते हैं। The unknotted possessionless ascetics, who live/stay on mountains, in caves of mountains and in dence forests and who take food by the bowl made of both palms-attain highest grade of life. अंचालिका (Anchalika) इच्छामि भंते! योगि - भत्ति - काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं अहाइज्जदीवदो समुद्दे सु, पण्णारस - कम्म भूमिसु, आदापणरूक्खमूलअब्मो- वासठाणमोण - विरासणेक्कपास कुक्कुडासण चउछपक्ख - खवणादि जोगजुत्ताणं, सव्वसाहूणं, णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। (भंते!) हे भगवन्! मैंने (योगिभत्ति काउस्सग्गो कओ) योगिभक्ति का कायोत्सर्ग किया। (तस्स आलोचेउ) उसकी आलोचना करने की (इच्छामि) मैं इच्छा करता हूँ। (अड्डाइज्जदीव - दोसमुद्देसु) अढाई द्वीप और दो समुद्रों में, (पण्णारस - कम्मभूमिसु) पन्द्रह कर्मभूमियों में, (आदावण-रूक्खमूलअब्भोवास-ठाण-मोण-विरासणेक्कपास- कुक्कुड़ासण-चउ-छ-पक्ख-खवणादि जोग-जुत्ताणं सव्वसाहूर्ण) आतापन-वृक्षमूल- अभ्रावकाश योग, मौन, वीरासन, एकपार्श्व, कुक्कुटासन, पक्षोपवास आदि योगों से युक्त समस्त साधुओं की (णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि वंदामि, णमस्सामि) नित्य सदाकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, उनको नमस्कार करता हूँ, मेरे (दुक्खक्खओ कम्मक्खओ) दुखों का क्षय हो, कर्मो का क्षय हो, (बोहिलाहो) रत्नत्रय की प्राप्ति हो, (सुगइगमण) उत्तम गति में गमन हो, (समाहिमरण) समाधिमरण हो (जिणगुण संपत्ति होऊ मज्झ) मुझे जिनेन्द्र देव के गुणों की प्राप्ति हो। O, lord! I have performed body mortification of yogi bhakti, I want to criticise it, I regularly every day adore, worship, Gems of Jaina Wisdom-IX 85
SR No.022375
Book TitleGems Of Jaina Wisdom
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Jain, P C Jain
PublisherJain Granthagar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy