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ग्रीष्मे सूर्यांशुतप्ता, गिरिशिखरगताः स्थानकूटान्तरस्थाः। ते मे धर्म प्रदधुर्मुनिगणवृषभा मोक्षनिः श्रेणि भूताः।।2।।
(प्रावृट्काले) वर्षाकाल में (सविद्युत्प्रपतितसलिले) बिजली की कड़कड़ाहट के साथ जलवृष्टि होने पर (वृक्षमूलाधिवासाः) वृक्ष के नीचे अधिवास किया/योग धारण किया, (हेमन्ते रात्रिमध्ये) शीत/ठंडी/हेमन्त ऋतु में रात्रि के समय (प्रतिविगतभया) भय से रहित हो (काष्ठवत्यक्तदेहाः) काष्ठ/लकड़ी समान हो अपने शरीर से मोह को त्याग कर अभ्रावकाश धारण करते हुए, (ग्रीष्मे ऋतु में) (सूर्यांशुतप्ता) जब सूर्य की किरणे संतप्त हों (गिरिशिखरगताः स्थानकूटान्तरस्थाः) पर्वत के शिखर पर ऊँची टेकरी पर जहाँ गर्मी अधिक हो, खड़े रहकर वहाँ योग धारण कर तपश्चरण करते हुए, (मोक्षनिः श्रेणिभमताः) मोक्षरूप मंदिर की ऊपरी मंजिल पर चढ़कर (मुनिगणवृषभाः) मुनिसमूह में श्रेष्ठ हुए हैं (ते) वे मुनिश्रेष्ठ (मे) मुझे/मेरे लिये (धर्मं प्रदधुः) प्रकृष्ट हितकर धर्म देवें।
May excellent ascetics - who sit under trees during rains in times of roaring, lightining and pourings rain (Brakchha mool yoga); who sits under open sky during cold winter (Abhravakash) after giving up/abandoning all attachment with body and treating it to be a log of wood and who performs body mortification by standing on the top of a excessive heating rock of a mountain looking towards the scorching sun (aataapan yoga) and who have due to all this reached the upper portion of the temple of salvation, bless me with excellent truthful religion.
गिम्हे गिरिसिहत्था, वरिसायाले रूक्खमूलरयणीसु। सिसिरि वाहिरसयणा, ते साहू दिमो णिच्वं ।।3।।
(गिह्ये गिरिसिहरत्था) ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर, (वरिसायाले रूक्खमूल) वर्षा-काल में वृक्ष के नीचे, (सिसिरे) ठंडी/शीत ऋतु में (रयणीसु) रात्रि में (वाहिरसयणा) खुले मैदान में ध्यान करते हैं; (ते साहू) उन साधुजनों की (णिच्च) नित्य (वंदिमो) वन्दना करता हूँ।
I every day regularly pay obeisance to such ascetics-who perform body mortification in heat on the top of mountain during summer, by sitting under a tree during rains and by sitting under open sky during winter. 84 • Gems of Jaina Wisdom-IX