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वीर्याचार का स्वरूप (Nature of Viryachar)
सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य दधतः, श्रद्धानमर्हन्मते, वीर्यस्याविनिगूहनेन तपसि, स्वस्य प्रयत्नाद्यतेः। या वृत्तिस्तरणीव नौरविवरा, लध्वी भवोदन्वतो, वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं, वन्दे सतामर्चितम् ।।6।।
(सम्यक्ज्ञान सम्यग्ज्ञान) सम्यक-ज्ञान रूपी नेत्र से युक्त तथा (अर्हत् मते) अर्हन्त देव के मत में/जिनशासन में (श्रद्धानम् दधतः) श्रद्धान को रखने वाले, (याः) मुनि के (स्वस्य वीर्यस्य) अपनी शक्ति को (अविनिगृहनेन) नहीं छिपाने से (प्रयत्नात) प्रयत्न पूर्वक (तपसि) तप के संबंध में (यावृत्तिः) जो प्रवृत्ति है, वह (अविवरा लध्वी) छिद्र रहित छोटी (नौः इव) नौका के समान (भव उदन्वतः तरणी) संसार-सागर से पार करने वाली नौका है, यही वीर्याचार है। (ऊर्जितगुण) प्रबल गुणों से सहित (सताम् अर्चितम्) सज्जनों के पूज्य (तं वीर्यचार) उस वीर्याचार को मैं (वन्दे) नमस्कार करता हूँ।
I humbly pay obeisance to the prowess conduct (viryāchāra) which has got strong powerful attributes and is worshippable by good persons. The activities of a saint relating to austarities which have the eyes of right knowledge which repose faith in the preachings of shri Arihanta deva (pure and perfect souls with body) and which are performed as best as possible without concealing the available strength or prowess is termed prowess conduct (viryāchara). The prowess conduct is comparable with a boat without any hole which enables a saint to cross the ocean of mundane existence.
चारित्राचार का स्वरूप (Nature of right Conduct)
तिस्त्रः सत्तमगुप्तयस्तस्तनुमनो, भाषानिमित्तोदयाः, पञ्चेर्यादि-समाश्रयाः समितयः पञ्चव्रतानीत्यपि। चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं, पूर्वं न दृष्टं परैराचारं परमेष्ठिनो जिनपते, वीरं नमामो वयम्।।7।।
(तनुमनोभाषा निमित्त उदयाः) शरीर, मन और वचन के निमित्त उदय होने वाली (तिस्त्रः) तीन (सत्तमगुप्तयः) श्रेष्ठ गुप्तियां, (ईयादि समाश्रयाः) ईर्यागमन
Gems of Jaina Wisdom-IX 73