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तदेत - दमरेश्वर - प्रचल - मौलि - माला - मणि, स्फुरत् - किरण - चुम्बनीय - चरणारविन्द - द्वयम्। पुनातु भगवज्जिनेन्द्र तव उरूप - मन्धीकृतम! जगत् - सकल - मन्यतीर्थ - गुरु - रूप - दोषोदयैः।।35।।
(भगवत्-जिनेन्द्र!) हे जिनेन्द्र देव! (अमर-ईश्वर-प्रचल मौलिमाला मणि-स्फुरत् किरण-चुम्बकीय-चरणारविन्द-द्वयम्) देवों के स्वामी इन्द्रों के चलायमान/नम्रीभूत मुकुटों की मालाओं में लगी मणियों की स्फुरायमान/चमकती हुई किरणों से जिनके दोनों चरण-कमल चुम्बित हो रहे हैं/स्पर्शित किये गये हैं; (एतत्-तद तव रूपम्) ऐसा यह आपका रूप (अन्यतीर्थ - गुरुरूप - दोष- उदयैः) मिथ्या/अन्यतीर्थ-कुगुरूकुदेव आदि उपदेशों के दोषों के उदय से (अनधीकृत) अन्ध किये गये (सकलम् जगत) पूर्ण संसार को (पुनातु) पवित्र करे।
OJinendra deva! may your form/body - whose lotus feet are being touched by the reflections of the gems of garlands of the moving crowns of the bowing down lords of celestial beings; consecrate/purify all the living beings of universe, who are blinded by the faults resulting from falshood i.e. by falsehood, and the false preachings of false preachers.
क्षेपक श्लोकाः (Inserted Verses)
मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजल, सत्खातिका पुष्पवटी, प्रकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं, वेदिकांत लजाद्याः। शालः कल्पद्रुमाणां सुपरिवृत्तवनं, स्तूपहावली च, प्राकारः स्फाटिकोन्तनृसुरमुनिसभा, पीठिकाग्रे स्वयंभूः।।।।।
तीर्थंकर प्रभु की समवशरण सभा में (मानस्तम्भाः) मानस्तम्भ, (सरासि) सरोवर, (प्रविमल जल सत्खातिका) निर्मल स्वच्छ जल से भरी हुई खातिका भूमि (पुष्पवाटी), उद्यानभूमि, (प्राकारो - नाटयशाला) कोट, नाटकशाला, (द्वितीयमुपवन) दूसरा उपवन, (वेदिका - अन्तर्ध्वजाद्याः) वेदिका के मध्य ध्वजा व पताकाएं, (शलः) कोट, (कल्पद्रुमाणा) कल्पवृक्ष, (सुपरिवृत्तवन) चारों ओर से वनों से घिरा हुआ ऐसा कोट, (स्तूप - हावली च) स्तूप और प्रासादों की पंक्ति (प्राकारः स्फाटिकः अन्त - नृसुर - मुनिसभा) स्फटिक की दीवालों के मध्य मनुष्य - देव व मुनियों की इस प्रकार बारह सभाएं तथा (पीठिका - अग्रे - स्वयंभू) सिंहासन पर अधर स्वयंभू - साक्षात् तीर्थंकर भगवान् विराजमान हैं।
Gems of Jaina Wisdom-IX.51