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The souls with unclean minds, which have become ignorant and faulty due to their inflated ego and who have become mutually enimical - commence relying upon each other by being free from/devoid of all unclean/polluted volitions - in consiquance of devotion to the lotus feet of shri Arihanta deva, lustrous due to the lustre of the diamonds of the crown of gods and beautified due to the movements on golden lotuses. Victory to such supreme being shri Arihanta deva.
तदनु जयति श्रेयान्-धर्मः प्रवृद्ध-महोदयः, कुगति-विपथ-क्लेशा-द्योसौ विपाशयति प्रजाः। परिणत-नयस्यांगी-भावाद्-विविक्त-विकल्पितम्, भवतु भवतस्रातृ त्रेधा जिनेन्द्र-वचोऽमृतम् ।।2।।
(तदनु) अरहंत देव के जय घोष के बाद (यः) जो (प्रजाः) जीवों को (गुगति-विपथ-क्लेशात्) नरक-तिर्यंच आदि अशुभ गतियों के खोटे मार्ग सम्बन्धी कष्टों से दुखों से (विपाशयति) बन्धन मुक्त करता है, (प्रवृद्ध महोदयः) स्वर्ग-मोक्ष रूप अभ्युदय को देने वाला (श्रेयान) कल्याणकारी है। ऐसा (असौ धर्मः) यह धर्म/वीतराग अहिंसामयी यह जिनधर्म (जयति) जयवंत रहता है। जिनधर्म के पश्चात (परिणतनयस्य) विविक्षित नय अर्थात् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक के (अंगीभावत्) स्वीकृत करने से (विविक्त विकल्पित) अंग व पूर्व के भेदों युक्त अथवा द्रव्य-पर्याय के भेद से युक्त (त्रेधा) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक अर्थात् तीन प्रकार के वस्तु स्वरूप का निरूपण करने वाले अथवा 11 अंग, 14 पूर्व और अंग बाह्य के भेद से तीन प्रकार अथवा शब्द अर्थ-ज्ञान के भेद से तीन प्रकार के (जिनेन्द्र-वचः अमृतम्) जिनेन्द्र भगवान के अमृत तुल्य वचन (भवतः) संसार से (त्रात) रक्षा करने वाले (भवतु) हों। ___The announcement of victory (to shri Arihanta deva) - which free mundane souls from the pangs of lower grades of life and which is benedictory and gainful to them and help them in the attainment of heaven as well as salvation and the conduct (religion) relating to it be ever victorious. May the nectorous utterings of shri Jineņdra deva - which give due place to different stand points i.e. substantial stand points, modal stand points etc. and to their qualifications into angās and poorvas or to words, meaning (or interpretation) and
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Gems of Jaina Wisdom-IX