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[११६] ते पण अकल्पहोय || माल निसरणी प्रमुख चढी जी, आणि दीये कल्पे न सोय ॥ सु० ॥ ॥ ८ ॥ मूल्य एयुं मत लीयो जी, मत लियो करी अंतराय || विहरतां थंज खंजादिकें जी, न को थिर ग्वोपाय ॥ सु० ॥ ए ॥ एषीपरें दोष सर्वे बांगतां जी, पामीयें आहार जो शुद्ध ॥ तो लहियें देह धारण भणी जी, अपलहे तो तपवृद्धि || सु० ॥ १० ॥ वयण लज्जा तृषा ज
ना जी, परिसहाथी स्थिरचित्त ॥ गुरुपासें इरियावदी पडिक्कमी जी, निमंत्री साधुनें नित्य ॥ सु० ॥ ११ ॥ शुद्ध एकांत ठामें जई जी, पडिक्कमी ईरियावदीसार ॥ जोयण दोष सवि aisa जी, स्थिर थइ करवो आहार ॥ सु० ॥ १२ ॥ दशवैका लिकें पांचमे जी, अध्ययनें कह्यो ए आचार ॥ ते गुरु लाजविजय सेवतां जी, वृद्धिविजय जयकार ॥ सु० ॥ १३ ॥ इति ॥