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चोवीश दंडक में तीन संज्ञा
13 देवदंडक में - दीर्घकालिकी सं. 1 ग. तिर्यञ्च में - दीर्घकालिकी सं. 1 नारक में - दीर्घकालिकी सं. 5 स्थावर में - संज्ञा का अभाव 3 विकलेन्द्रिय-हेतुवादोपदेशिकी 1 ग. मनुष्य में - दीर्घकालिकी , दृष्टिवादोपदेशिकी । ० तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय को भी सम्यग्दृष्टि एवं देशविरति चारित्र (रुप हेयोपादेयता) होने से दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है । लेकिन वो कम होने से शास्त्र में नहि बतायी है । केवल सम्यग्दृष्टिता की अपेक्षा से देवादिक चारो गतिवाले को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है, लेकिन विशिष्ट श्रुतज्ञान तथा हेयोपादेय के अभावसे इस संज्ञा की मुख्यता बतायी नहिं । ० अपर्याप्त युगलिक मनुष्य का मृत्यु नही होता है इसलीये गति का स्थान शून्य है और युगलिक मनुष्य के संबंध में लब्धि अपर्याप्तता नहि है. अर्थात् वे लब्धि पर्याप्ता ही होते है, इसलिये उसकी आगति भी नही है। • युगलिक चतुष्पद की स्थिति युगलिक मनुष्य समान होती है, इसलिए स्थिति अनुसार दूसरे स्वर्ग तक उत्पति है । खेचर की स्थिति • पल्योपम असंख्यात भाग की होने से भवनपति / व्यन्तर में ही उनकी उत्पत्ति है। उरपरिसर्प - भुजपरिसर्प, जलचर युगलिक नहि होते है , युगलिक अपने आयु के समान स्थितिवाले देव में या हीन स्थितिवाले देव में उत्पन्न हो सकते है।
संख्यात आयुवाले पर्याप्ता गर्भज मनुष्य , गर्भज, तथा समूर्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय युगलिक में उत्पन्न होते है ।
पदार्थ प्रदीप