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________________ ४४] प्रथम अध्याय उद्दिष्टादपि भोजनाञ्च विरतिं प्राप्ताः क्रमात्प्राग्गुण प्रौढ्या दर्शनिकादयः सह भवत्येकादशोपासकाः ॥१७॥ ___अर्थ-जो सम्यग्दर्शन के साथ साथ आठ मूलगुणोंको धारण करता है उसे पहिली प्रतिमाका धारण करनेवाला दर्शनिक कहते हैं । जो दर्शनिक श्रावक अतिचार रहित अणुव्रत तथा गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंको पालन करता है वह दूसरी प्रतिमाका धारण करनेवाला प्रतिक अथवा व्रती कहलाता है । व्रती जव अतिचार रहित तीनों समयमें विधिपूर्वक सामायिक करता है तव तीसरी सामायिक प्रतिमाका धारण करनेवाला कहलाता है। तीसरी प्रतिमाका धारण करनेवाला जव अष्टभी चतुर्दशी इन पर्वके दिनों में नियमसे विधिपूर्वक प्रोषधोपवास करता है तब उसे चाथा प्रोषध प्रतिमाका धारण करनेवाला कहते हैं। जब वह सचि. त्त भोजनका त्याग कर देता है तब उसे पांचवीं सचित्त त्याग प्रतिमा धारण करनेवाला कहते हैं । जव वह दिनमें मैथुन करने का त्याग कर देता है तब वह छट्टी दिवामैथुनत्यागी प्रतिमाका धारण करनेवाला कहलाता है । जब वह स्त्रीमात्रका त्याग कर देता है तब वह ब्रह्मचर्यप्रतिपावाला कहा जाता है । जब वह खेती व्यापार आदि आरंभोंका त्याग कर देता है तब उसे आरंभत्यागी कहते हैं । जब परिग्रहोंका त्याग कर देता है तब उसे परिग्रहत्यागी कहते हैं । इसने मेरे लिये यह काम अच्छा किया है इसप्रकारकी अनुमोदनाका नब वह त्याग कर देता |
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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