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________________ सागारधर्मामृत [ ३५ संज्वलन संबंधी क्रोध मान माया लोभ इन मुख्य बारह कषाय रूप चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे अर्थात् उस चारित्रमोहनीय कर्म के उदयके परवश होकर जो इंद्रियोंसे उत्पन्न हुये सुख का अनुभव करता है, चक्षु रसना आदि इंद्रि योंके रुप रस आदि इष्ट पदार्थों का सेवन करता है इतना ही नहीं किंतु त्रस और स्थावर जीवों को भी वह पीडा देता है, दुख पहुंचाता है । परंतु इन कार्यों से वह अपनी निंदा अवश्य करता है, वह समझता है कि " मेरा आत्मा हाथमें दीपक लेकर भी अंधे कूपमें पड रहा है, मुझे बार बार धिक्कार हो 19 इसप्रकार जो अपनी निंदा करता है तथा गुरुके समीप जाकर भी इसप्रकार अपनी निंदा करता है कि "हे भगवन् ! मैं इसप्रकार - के कुमार्गमें जा रहा हूं, नरक आदि दुर्गतियों के दूख मुझसे कैसे सहे जायेंगे " | अभिप्राय यह है कि जैसे पकडा हुआ चोर जानता है कि काला मुंह करना गधेपर चढना आदि निंद्य काम है तथापि कोतवालकी आज्ञानुसार उसे सब काम करने पडते हैं इसीप्रकार सम्यग्दृष्टी पुरुष जानता है कि त्रस स्थावर जीवों को दुख पहुंचाना इंद्रियों के सुख सेवन करना निंद्य और अयोग्य कार्य हैं, तथापि चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उसे ये सब काम करने पडते हैं, द्रव्यहिंसा भावहिंसा भी करनी पडती है, क्योंकि अपने समय के अनुसार जो कर्मोंका उदय आता है वह किसीसे रोका नहीं जा सकता, उसका फल भोगना ही
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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