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________________ ३२ ] प्रथम अध्याय अब मंदबुद्धिवाले शिष्योंको सहज ही स्मरण रहे इस - लिये पूर्ण सागारधर्मको कह देते हैं- सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षात्रतानि मरणांते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागरधर्मोयम् || १२ || अर्थ-- जिसमें शंका, आकांक्षा आदि कोई दोष नहीं है ऐसा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, अतिचार रहित अणुव्रत, अतिचाररहित गुणत्रत, और अतिचाररहित शिक्षाव्रतोंका पालन करना तथा मरने के अंतिम समय में विधिपूर्वक सल्लेखना अर्थात् समाधिमरण धारण करना यह पूर्ण सागारधर्म कहलाता है । भावार्थ -- पूर्ण सागारधर्म में सम्यक्त्व और सब व्रत अतिचाररहित होने चाहिये, जबतक अतिचार सहित व्रत हैं तबतक उसका धर्म अपूर्ण कहलाता है । सम्यक्त्व, अणुव्रत, गुणत्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना इनके सिवाय देवपूजा स्वाध्याय आदि और भी श्रावक के धर्म हैं परंतु वे सब इन्हीं में अंतर्भूत (शामिल) हो जाते हैं इसलिये उन्हें अलग नहीं कहा है, अथवा श्लोक में जो च शब्द है उससे देवपूजा स्वाध्याय आदि जो इस लोक में नहीं कहे हैं उन सबका ग्रहण हो जाता है । सल्लेखना व्रत मरणके अंतिम समय में धारण करना चाहिये । जिसमें शरीर नष्ट हो जाय वही मरण यहांपर लिया है, सल्लेखना में आवीचिमरणका ग्रहण नहीं किया है क्योंकि
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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