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________________ १०] प्रथम अध्याय आलाप उपदेशरुप संज्ञाको धारण करनेवाला संज्ञी है और जिसके परिणाम विशुद्ध हैं तथा सद्गुरुके उपदेशसे और आदि शब्दसे जातिस्मरण, देवागमन, जिनप्रतिमादर्शन आदिसे जिसका मिथ्यात्वकर्म नष्ट हो गया है ऐसे जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। भावार्थ-आसन्नभव्यता, कर्मोंका क्षयोपशमादि होना, संज्ञी होना और परिणामोंकी विशुद्धि होना ये सम्यक्त्वके अंतरंग कारण हैं और गुरुका उपदेश, जातिस्मरण जिनप्रतिमादर्शन आदि बाह्य कारण हैं, इनसे मिथ्यात्व नष्ट होकर सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इस श्लोकमें ग्रंथकारने चार लब्धियोंका स्वरूप दिखलाया है । ' जो निकट भव्य है और जिसके मिथ्यात्व आदि तरह जाननेवाला मन है ऐसे मनुष्य बैल तोते हाथी आदि संज्ञी कहलाते हैं। भावार्थ-संज्ञीके मुख्य चार भेद हैं। जिस कार्यसे अपना हित हो वह करना और जिससे हित न हो वह नहीं करना इसप्रकारके ज्ञानको शिक्षा कहते हैं। इस शिक्षाको मनुष्य ग्रहण कर सकता है । हाथ पैर मस्तक आदिके हिलानेको क्रिया कहते हैं, यह क्रिया यदि बैल वगैरहको सिखलाई जाय तो वे इसे सीख सकते हैं जैसे सरकसके घोडे अथवा नांदी बैल आदि । श्लोक अथवा शब्द आदिके पढानेको आलाप कहते हैं, इस आलापको तोता मैना आदि जीव सीख सकते हैं। संज्ञावाचक शब्द अथवा संकेत आदिके द्वारा हिताहित जाननेका नाम उपदेश है, इस उपदेशको हाथी कुत्ते आदि जीव सीख सकते हैं ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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