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________________ २] प्रथम अध्याय अर्थात् - - " जिसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान विद्यमान है, जिसके चरित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम हुआ है और जो विषयों से निस्पृह है ऐसा पुरुष यदि हिंसा आदि पांचों पापों का पूर्णरीतिसे त्याग करे तो वह यति वा मुनि होता है और यदि वह इन्हीं हिंसादि पापका एकदेश त्याग करे तो वह श्रावक कहलाता है " ऐसा कह चुके हैं । इसकारण शिष्यों के लिये ग्रंथके मध्य में मंगलाचरण कहकर सागारधर्मामृतको कहने की प्रतिज्ञा करते हैं । अथ नत्वाऽऽतोऽक्षूणचरणान् श्रमणानपि । तद्धर्मरागिणां धर्मः सागराणां प्रणेष्यते ॥ १ अर्थ – मोहनीय कर्मके अत्यंत क्षय होनेसे जिनका यथाख्यात चारित्र पूर्ण हो गया है ऐसे अरहंत तीर्थंकर परम देवको नमस्कार कर तथा अतिचार रहित सामायिक छेदोपस्थापना आदि चारित्रको धारण करनेवाले और बाह्य आभ्यंतर तपश्चरण करनेवाले आचार्य उपाध्याय साधुगणको शुद्ध भावोंसे नमस्कार कर सकल चारित्ररूप मुनियों के धर्ममें लालसा रखनेवाले ऐसे श्रावकों का धर्म निरूपण किया जाता है। भावार्थ – जो शक्तिरात अथवा दीन संहनन होनेके कारण मुनित्रत धारण नहीं कर सकते किंतु उसके धारण करनेके लिये जिनकी लालसा सदा बनी रहती है उन्हें ही श्रावक कहते हैं, जिनके मुनित्रत धारण करनेका अनुराग नहीं है
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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