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________________ सागारधर्मामृत [२८९ | अर्थात् “ जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध है जो संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त है, पंचपरमेष्ठीके चरणोंको ही शरण मानता है | और यथार्थ मार्गको ग्रहण करता है वही दर्शनिक श्रावक है।" ऐसा कहा है उनके मतानुसार ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरुप केवल अतिचार छुडानकोलये कहागया है ऐसा समझना चाहिये ॥ ५९॥ __ आगे-यद्यपि जो गृहस्थ श्रावक स्वीकार कियेहुये व्रतों का पालन करता है उसके ऐसा भारी पापका बंध नहीं होता है तथापि मुनिधर्म पालन करनकोलये जिसका अनुराग होरहा है और मुनिधर्म धारण करनेसे पहिले गृहस्थ अवस्थामें ही कामभोगोंसे विरक्त होकर श्रावकधर्मका प्रतिपालन करता है उसके वैराग्यकी उत्कृष्टता बढानेकेलिये सामान्य रीतिसे अब्रह्मके दोष दिखलाते हैं संतापरूपो मोहांगसादतृष्णानुबंधकृत् । स्त्रीसंभोगस्तथाप्येष सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा ॥ ५३ ॥ अर्थ-स्त्रीसंभोग संतापरूप है क्योंकि स्त्रीको स्पर्श करना पित्तको कुपित करनेका कारण है । अथवा वह संताप करनेवाला है इसलिये भी संतापरूप है, इसके सिवाय स्त्रीसंभोग करते समय हित अहितका भान नहीं रहता इसलिये वह हित अहितके विचार रहित रूप मोहको उत्पन्न करनेवाला |
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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