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________________ २५४ ] चौथा अध्याय अर्थ--" रामचंद्रको पहुंचाकर यदि मैं फिर लोटकर तेरे समीप न आऊं तो मैं गोवध अथवा स्त्रीवध आदि पापोंसे लिप्त होऊ" ऐसी शपथें लक्ष्मणने अनेक की तथापि वनमालाने इसलोकमें समस्त शपथों को छोडकर “ यदि लौटकर न आवे तो रात्रिमें भोजन करनेके समान महा पाप लगे" ऐसी शपथ कहाई थी । भावार्थ- रामायणमें यह कथा इस. प्रकार है कि पिताकी आज्ञासे रामचंद्र सीताके साथ जब वनको निकले थे उससमय लक्ष्मण भी भाईके अटल प्रेमसे उनके ही साथ गये थे। उन तीनोंने दक्षिण देशको गमन किया था। मार्गमें लक्ष्मणने उत्तरकूर्चन नगरके महाराज महीधरकी कन्या वनमालाके साथ विवाह किया था। जब लक्ष्मण प्रियपत्नी वनमालाको छोडकर रामचंद्र के साथ जाने लगे उतप्तमय विरहसे कातर हुई और फिर लौटनेकी असंभाविना करती हुई उस वनमालाने लक्ष्मणसे फिर लौट आनेकेलिये शपथ करने को कहा। लक्षपणने भी कहा कि-" हे प्रिये ! रामचंद्रको उनके इच्छानुसार स्थानमें पहुंचाकर और उनकी योग्य व्यवस्थाकर यदि मैं लौटकर अपने दर्शनसे तुझे प्रसन्न न करूं तो मुझे हिंसादि पापोंके करनेका दोष लगे, " परंतु वह विदुषी वनमाला इस शपथसे संतुष्ट नहीं हुई और बोली कि-हे प्रियतम ! यदि आप रात्रिभोजन करनेके समान दोष लगनेकी शपथ करते हो तो मैं यहां रह सकती हूं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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