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________________ २५२ ] चौथा अध्याय . से वमन हो जाता है, मुद्रिका खा जानेसे मेदाको हानि पहुंचती है, यदि विच्छ भोजनमें मिल जाय तो उस भोजनसे तालुरोग हो जाता है। कांटा वा लकडीका टुकड़ा भोजनके साथ चले जानेसे गळेमें रोग हो जाता है । भोजनमें मिला हुआ बाल यदि गलेमें लग जाय तो उससे स्वरभंग हो जाता है इसप्रकारके अनेक दोष रात्रिमें खानेसे होते हैं जो कि प्रत्यक्ष दिखाई वा सुनाई पडते हैं । ये सब प्रत्यक्ष दोष हैं, इन्हें सब कोई मानते हैं । इसके सिवाय जो अंधकारमें दिखाई नहीं पडते ऐसे बहुत सूक्ष्म जीव रात्रिमें घी पानी आदिमें पड़ जाते हैं, लड्ड आदि भोजनोंमें मिल जाते हैं, वह भोजन भी उन्हें खाना पडता है। इसके सिवाय रात्रिमें भोजन करनेवालोंको वह भोजन रात्रिमें ही तैयार करना पडेगा और रात्रिमें भोजन बनानेसे छहों कायके जीवोंकी हिंसा अवश्य करनी पडेगी। ( यदि वह दिनमें भोजन बनाता वा खाता तो जिन जीवोंका संचार दिनमें नहीं होता है ऐसे अनेक जीवोंकी हिंसा बच जाती ) तथा बर्तन आदि धोनेसे अंधकार वा थोडे प्रकाशमें न दिखनेवाले जलमें रहनेवाले बहुतसे जीवों का विनाश करना पडेगा, तथा वह धोवनका जल जहां डाला जायगा वहांके चींटी कुंथु आदि बहुतसे जीवोंकी हिंसा हो जायगी । इसके सिवाय रात्रि पिशाच राक्षस आदि नीच व्यंतर देव फिरा करते हैं उनके स्पर्श कर लेनेसे वह भोजन अभक्ष्य हो जाता है|
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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