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________________ २४६ ] चौथा अध्याय आगे - अहिंसा व्रत के स्वीकार करने की विधि कहते हैंहिंस्यहिंसक हिंसा तत्फलान्यालोच्य तत्त्वतः । हिंसां तथोज्झेन यथा प्रतिज्ञाभंगमाप्नुयात् ||२०|| अर्थ — जिसकी हिंसा की जाती है उसे हिंस्य कहते हैं, हिंसा करनेवालेको हिंसक कहते हैं, प्राणोंके वियोग करनेको हिंसा कहते हैं और हिंसा करनेसे जो कुछ नरकादि दुःख मिलते हैं उसे हिंसा का फल कहते हैं । व्रती श्रावकोंको गुरु, साधर्मी और कल्याण चाहनेवालों के साथ हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा के फलको यथार्थ रीतिसे विचारकर अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका त्याग इसप्रकार करना चाहिये कि जिसमें फिर कभी भी की हुई प्रतिज्ञाका भंग न हो ॥ २० ॥ आगे--हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा के फलको दिखलाते हैं प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्तद्विच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसंचयः ॥ २१ ॥ अर्थ - - जो पुरुष क्रोध आदि कषाय सहित है वह हिंसक कहलाता है । इसका वर्णन पहिले यत्याचार में अहिंसा महाव्रतके कथन करते समय बहुत विस्तार के साथ कह चुके हैं इसलिये यहांपर दूबारा लिखना व्यर्थ है । इंद्रिय बल आयु और श्वासोच्छ्रास इन पुद्गलके विकारों को द्रव्यमाण कहते हैं और चैतन्यके परिणामोको भावप्राण कहते हैं । द्रव्यमाण और भावप्राण
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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