SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१७) - स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ॥ तर्कप्रबन्धो निरवद्यपद्यपीयूषपूरो वहतिस्म यस्मात् ॥ १०॥ सिद्धयर्ड्स भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलम् यस्त्रविद्यकवीन्द्रमोदनसहं स्वश्रेयसेऽरोरचत् । योऽहंद्वाक्यरसं निबन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम् निर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रं हृदि ॥ ११ ॥ आयुर्वेदविदामिष्टां व्यक्तुं वाग्भटसंहिताम् । अष्टाङ्गहृदयोद्योतं निबन्धमसृजच्च यः ॥ १२ ॥ यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धनम् । विधत्तामरकोशे च क्रियाकलापमुजगौ १ ॥ १३ ॥ (जिनयज्ञकल्प.) - भावार्थ-स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकर नामका न्यायग्रन्थ जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, आशाधरके हृदयसरोवरसे प्रवाहित हुआ। भरतेश्वराभ्युदय नामका उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अंतमें 'सिद्ध' शब्द रक्खा गया है, जो तीनों विद्याओंके जाननेवाले कवीन्द्रोंको आनन्दका देनेवाला है और स्वोपज्ञटीकासे १-ये १३ श्लोक तीनों प्रशस्तियों में एकसे हैं। अनगारधर्मामृतकी टीकामें बारहवाँ श्लोक १९ वें नम्बरपर है और तेरहवां चौदहवें नम्बर पर है। उनके स्थानपर जो दूसरे लोक हैं, वे आगे लिखे गये हैं। २-३ ये दोनों ग्रन्थ सोनागिरके भट्टारकके भण्डारमें हैं। -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy