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________________ २१२ ] चौथा अध्याय और मूलगुणों सहित जो पुरुष इष्ट अनिष्ट पदार्थोसे रागद्वेष दूर करनकोलये अतिचाररहित उत्तरगुणोंको सुगमतासे धारण करता है वह व्रती कहलाता है । यहांपर इतना और समझ लेना चाहिये कि इष्ट अनिष्ट पदार्थोंसे रागद्वेष दूर करनेकेलिये वह उत्तरगुणोंको निरतिचार पालन करता है किसी द्वारा किसी इष्ट फलकी प्राप्तिकी इच्छा करना निदान है । वह दो प्रकारका है-एक प्रशस्त और दूसरा अप्रशस्त । उसमेंभी प्रशस्तके दो भेद हैं-एक मुक्तिका कारण और दूसरा संसारका कारण । समस्त काँके क्षय करनेकी आकांक्षा करना मुक्तिका कारण प्रशस्त निदान है । कहा भी है --- ____ कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधिं समाधिं जिनबोधसिद्धिं । आकांक्षितं क्षीणकषायवृत्तेविमुक्तिहेतुः कथितं निदानं ॥ अर्थ-जिसके कषाय नष्ट होगये हैं ऐसा पुरुष कर्मका नाश, संसारके दुःखकी हानि, रत्नत्रय, समाधि और केवलज्ञानकी सिद्धि होने की इच्छा करे तो उस इच्छाको मुक्तिका कारण प्रशस्त निदान कहते हैं। जिनधर्मसिद्धयर्थं तु जात्याद्याकांक्षणं संसारनिमित्तं । अर्थ-जिन। धर्मकी सिद्धि और वृद्धि करनेकेलिये अपनी जाति आदिकी आकांक्षा करना सो संसारका कारण निदान है । कहा भी है जातिं कुलं बंधविवर्जितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिध्द्यै । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं निदानं ॥ अर्थ-विशुद्ध चारित्रवालेको जिनधर्मकी वृद्धि करनेकेलिये जो उत्तम जाति, उत्तम कुल, बंधसे रहित होना, और परिग्रहसे रहितपनाकी जो इच्छा होती | है उसको संसारका कारण प्रशस्त निदान कहते हैं ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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