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________________ सागारधर्मामृत [ १७७ घटमान देशसंयम श्रावक हैं, तथा जिनके द्वारा यह जीव पुण्य और पापको स्वयं स्वीकार करे अथवा जो आत्माको कृश कर दें अर्थात् जिनके द्वारा आत्माके गुण ढक जायं ऐसी जो कषायके उदयसे मिली हुई योगों की प्रवृत्ति है उसे भाव लेश्या कहते हैं । शरीरके वर्णको द्रव्य देश्या कहते हैं ये दोनों ही प्रकारकी लेश्यायें कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्ल के भेदसे छह प्रकार की होती हैं । इन छह प्रकारकी 'लेश्याओं में से जिसके प्रशस्त लेश्या हैं और वे भी आगे आगे अधिक अधिक प्रशस्त होती गई हैं अर्थात् पाक्षिक की अपेक्षा दर्शन प्रतिमावालेके उत्कृष्ट लेश्यायें १ - लिम्यत्यात्मीकरोत्यांत्मा पुण्यपापे यया स्वयं । सा लेश्येत्युच्यते सद्भिर्द्विविधा द्रव्यभावतः || अर्थ - जिसके निमित्तसे आत्मा स्वयं पुण्य पापको स्वीकार करता है उसे लेश्या कहते हैं वह दो प्रकारकी है एक द्रव्य लेश्या और दूसरी भाव लेश्या । प्रवृत्तियौगिकी लेश्या कषायोदयरंजिता । भावतो द्रव्यतो देहच्छविः षोढोभयी मता ॥ अर्थ - कषायों के उदयसे मिली हुई योगों की प्रवृत्तिको भाव लेश्या कहते हैं और शरीर के काले पीले आदि वर्णको द्रव्य लेश्या कहते हैं । इन दोनों के ही छह छह भेद हैं कृष्णा नीलाथ कापोती पीता पद्मा सिता स्मृता । लेश्या षड्भिः सदा ताभिर्गृह्यते कर्म जन्मिभिः ॥ अर्थ - कृष्णा नीला कापोती पीतां पद्मा शुक्ला - ये छह लेश्या हैं । संसार में समस्त जीव इन छहों लेश्याओंके द्वारा कर्म ग्रहण करते हैं । १२.
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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