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________________ - सागारधर्मामृत [१७३ यात्रा निकालना इत्यादि क्रियायें करनी चाहिये । तथा लोगों के चित्त संतुष्ट करनेकेलिये प्रीतिपूर्वक समानधर्मी श्रावकोंको, इष्ट मित्रोंको और कुटुंबी लोगोंको अपने घर भोजन कराना चाहिये । आये हुये अतिथियोंका सत्कार और 'भूतबलि आदि क्रियायें भी करना चाहिये ॥ ८४ ॥ ___आगे-अपना कल्याण चाहनेवालोंको कीर्ति भी संपादन | करना चाहिये ऐसा कहते हैं-- अकीर्त्या तप्यते चेतश्चेतस्तापोऽशुभास्रवः । यत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥८५॥ अर्थ-अपयशसे अथवा यशके न होनेसे चित्तको संताप होता है तथा चित्तको संताप होना अर्थात् मनकी कलुषता होना पापका कारण है । इसलिये गृहस्थको पुण्योपार्जन करनेकेलिये चित्त प्रसन्न रखना चाहिये और चित्त प्रसन्न करनेकेलिये कीर्ति संपादन करना चाहिये । अथवा पुण्य बढानेकेलिये और अपना चित्त प्रसन्न करनेके लिये अपना यश फैलाना चाहिये ॥५॥ बागे--कीर्ति संपादन करनेका उपाय बतलाते हैंपरासाधारणान्गुण्यप्रगण्यानघमर्षणान् । गुणान् विस्तारयेन्नित्यं कीर्तिविस्तारणोद्यतः ॥८६॥ १-यक्षोंके लिये जो भेट दीजाती है उसे भूतबलि कहते हैं। | यह क्रिया भी गृहस्थोंके लिये ग्राह्य है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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