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________________ सागारधर्मामृत [१६९ है । देखो, " हिंसक जीवोंको मार देना चाहिये " ऐसा कहनेवाला भी हिंसाका उपदेश देता है इसलिये वह भी हिंसक हुआ तो फिर उसका भी घात करना चाहिये और फिर उसको मारनेवाला भी हिंसक हुआ इसलिये उसका भी घात करना चाहिये । इसतरह ऐसे मतवालोंको लाभके बदले उनके मूलका ही नाश हो जायगा । तथा अन्य बहुतसे जीवोंकी रक्षा करने के अभिप्रायसे हिंसक जीवोंका घात करनेसे भी धर्मका संचय अथवा पापका नाश नहीं हो सकता क्योंकि धर्मका संचय अथवा पापका नाश तो दया करनेसे होता है हिंसासे नहीं । इसलिये कोई जीव चाहे जैसा हिंसक हो तथापि उसका वध कभी नहीं करना चाहिये । इसीतरह कितने ही लोगोंका ऐसा मत है कि " जो जीव दुखी हैं उनको मारकर दुःखसे छुडा देना चाहिये " परंतु उनका यह कहना भी असंगत' है क्योंकि उनके मारनेसे इसलोकमें होनेवाले दुःख किसीतरह छूट भी गये तो भी वह इस दुर्मरणसे मरकर नरकमें पडा तो वहां उसे असंख्यात वर्षपर्यंत असह्य दुःख भोगने १- बहुदुःखा संज्ञपिताः प्रयांति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिं । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हंतव्याः ॥ अर्थ-'अनेक दुःखोंसे पीडितहुये जीवोंको मार देनेसे उनका दुःख शीघ्र ही नष्ट हो जायगा' इसप्रकार तर्कवितर्करूपी तलवारको स्वीकारकर दुःखी जीवोंको भी नहीं मारना चाहिये।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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