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________________ ____सागारधामृत [ १६५ | आगे-व्रतका लक्षण कहते हैंसंकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥८॥ अर्थ-स्वस्त्री, तांबूल, गंध आदि जो सेवन करनेयोग्य भोगोपभोगके पदार्थ हैं उनमें संकल्पपूर्वक नियम करना कि मैं इतने पदार्थोंको इतने कालतक सेवन नहीं करूंगा अथवा मैं इतने पदार्थों को इतने दिनोंतक ही सेवन करूंगा आगे नहीं । इस प्रकार संकल्पपूर्वक त्याग करनेको व्रत कहते हैं । अथवा हिंसा आदि अशुभकर्मोंका संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। अथवा पात्रदान आदि शुभकर्मों में प्रवर्त होना भी व्रत है । भावार्थ-व्रत दो प्रकारके हैं प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप । अशुभ कर्मोंका त्याग करना निवृत्तिरूप है और शुभकार्योंका करना प्रवृत्तिरूप है । कितने ही व्रत दोनों रूपसे होते हैं ॥ ८० ॥ ___ आगे-विशेष आगमका प्रमाण देकर जीवोंकी रक्षा कर. नेकी विधि कहते हैं न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्यार्ष धर्मे प्रमाणयन् । सागसोऽपि सदा रक्षेच्छक्त्या किं नु निरागसः ॥ ८१ ॥ अर्थ-"कल्याण चाहनेवालोंको त्रस और स्थावर समस्त जीवोंमेंसे संकल्पपूर्वक किसीकी हिंसा भी नहीं करनी चाहिये " ऐसा महा ऋषियोंने कहा है । इसका प्रमाण मान
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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