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________________ सागारधर्मामृत धर्मार्थकामसध्रीचो यथौचित्यमुपाचरन् । सुधीत्रिवर्गसंपत्या प्रेत्य चेह च मोदते ॥७॥ अर्थ--जो बुद्धिमान पुरुष धर्म अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोंके साधन करनेमें सहायता पहुंचानेवाले पुरुषोंको यथायोग्य अर्थात् जो जिसके योग्य है उसको उसीतरह दान मान आदि देकर उथकार करता है वह पुरुष इस जन्म और परलोक दोनों लोकोंमें धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थों की संपदाओंसे आनंदित होता है। इस श्लोकमें जो दो 'च' शब्द दिये हैं वे यह सूचित करते हैं कि धर्म अर्थ काम इन पुरुषार्थोंकी सहायता पहुंचानेवालों को दान मान आदि देनेसे जैसा इस. लोकमें तीनों पुरुषार्थों की संपदाओंका आनंद प्राप्त होता है ठीक वैसा ही आनंद परलोकमें भी मिलता है । भावार्थ-दोनों लोकोंमें उसे समान आनंद मिलता है___इसप्रकार समानदत्ति और पात्रदत्ति इन दोनोंका निरूपण अच्छीतरह कर चुके ॥ ७४ ॥ अब आगे--गृहस्थको दयादत्ति अवश्य अवश्य करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हुये कहते हैं सर्वेषां देहिनां दुखाद्विभ्यतामभयप्रदः । दयार्दो दातृधौरेयो निर्भीः सौरूप्यमश्नुते ॥ ७५ ॥ अर्थ--जो गृहस्थ मन और शरीर संबंधी संताप आदि दुखोंसे भयभीत ( डरे हुये ) ऐसे समस्त प्राणि
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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