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________________ - लागारधर्मामृत [१४७ न्यग्मध्योत्तमकुत्स्यभोगजगतीभुक्तावशेषावृषात्तादृक्पात्रवितीर्णभुक्तिरसुदृग्देवो यथास्वं भवेत् । सद्दृष्टिस्तु सुपात्रदानसुकृतोद्रेकात्सुभुक्तोत्तमस्वर्भूमर्त्यपदोऽश्रुते शिवपदं व्यर्थस्त्वपात्रे व्ययः ॥६७॥ अर्थ-पात्र चार प्रकारके हैं जघन्य मध्यम उत्तम और कुपात्र । इन चारोंप्रकार के पात्रोंको आहारदान देनेवाला मिथ्यादृष्टि पुरुष मरनेके पीछे अनुक्रमसे जध.य, मध्यम, उत्तम भोगभूमि तथा कुभोगभूमिमें जन्म लेता है, वहां कल्पवृक्षोंसे मिलनेवाले इच्छानुसार सुखोंको भोगकर आयु पूर्ण होनेके पीछे बचेहुये पुण्यके प्रभावसे जैसा दान दिया था वैसा ही देव होता है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र है उसे दान १-उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं, मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यं । निदर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं, युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥ अर्थ-अनगार अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित महाव्रती दिगंबर मुनि उत्तम पात्र है, अणुव्रती सम्यग्दृष्टी मध्यम पात्र हैं और व्रत रहित सग्यग्दृष्टी जघन्य पात्र हैं। ये तीनों ही सत्पात्र गिने जाते हैं। सम्यग्दर्शन रहित व्रती जीव कुपात्र है तथा जो सम्यग्दर्शन और व्रत इन दोनोंसे रहित हैं वे अपात्र हैं। उत्तमपत्तं साहू मज्झमपत्तं च सावया भणिया। अविरदसम्माइठी जहण्णपत्तं मुणेयव्वं ॥ अर्थ-उत्तमपात्र साधु हैं, मध्यमपात्र अणुव्रती श्रावक हैं और जघन्यपात्र अविरत सम्यग्दृष्टी जानना ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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