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________________ wwwww | १३८ ] दूसरा अध्याय । सकते हैं । जबतक घरमें सुयोग्य स्त्री न होगी तबतक ये तीनों ही सिद्ध न हो सकेंगे। इसलिये जिस सद्गृहस्थने साधर्मी श्रावकके लिये सामुद्रिक दोषोंसे रहित, कुलीनता आदि गुणोंसे सुशोभित ऐसी प्रशस्त कन्याका दान किया उसने उस सधर्मीके लिये धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थों सहित गृहाश्रम ही दिया ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि विद्वान् लोग कुलस्त्रीको ही घर कहते हैं मिट्टी काठ आदिसे दीवाल और छत बनाकर खडे कियेको घर नहीं बतलाते हैं । अभिप्राय यह है कि कन्या गृहाश्रम देनेके ही समान है । जिस अवस्थामें घरमें रहकर ही धर्मानुष्ठान किया जाय अथवा जिस अवस्थामें धर ही तपश्चरण करनेका स्थान माना जाय उसे गृहाश्रम कहते हैं । गृहस्थ वा श्रावक घरमें रहकर ही सबतरहके धर्मानुष्ठान करता है अथवा शक्तिके अनुसार दान तप आद करता है और वे दान तप वा धर्मानुष्ठान विना सुयोग्य स्त्रोकी सहायताके हो नहीं सकते इसलिये कन्या देना धर्मानुष्ठान करनेका साधन बना देना है, और इसलिये ही उसे बड भारी पुण्यकी प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ आगे--विवाहकर कुलस्त्री स्वीकार करना दोनों लोकोंमें अभिमत फल देनेवाला है इसलिये धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थोंको सेवन करनेवाले गृहस्थों को अवश्य स्वीकार करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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