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________________ सागारधर्मामृत [१३५ काम इन तीनो पुरुषार्थीको संपादन कर देता है। इसलिये वह धर्म अर्थ काम इन पुरुषाके सेवन करनेवालोंमें प्रधान गिना जाता है तथा सज्जन पुरुषोंकी संगति और जैन शास्त्रोंके निमित्तसे चारित्रमोहनीयकर्मकी तीव्रता नष्ट कर अवश्य करने योग्य ऐसे 'इसलोक संबंधी और परलोक संबंधी कार्योंके करनेमें समर्थ होजाता है । अभिप्राय यह है कि कराकर तथा किसी तीर्थस्थानके दर्शन कराकर उन दोनों वरवधू ओंको बडी विभूतिके साथ घरमें प्रवेश करावे । घर जाकर वे दोनों ही अपना कंकण छोडें और भोगोपभोग सामग्रीसे शोभायमान ऐसे घरमें कोमल शय्यापर शयन करें। उन दोनोंको संतान उत्पन्न करनेके लिये ऋतुकालमें ही परस्पर कामसेवन करना चाहिये अन्य कालमें नहीं। शक्ति और कालकी अपेक्षा रखनेवाला यह क्रम केवल समर्थ लोगोंके लिये कहा है असमर्थ लोगोंके लिये इससे उलटा समझना चाहिये अर्थात् असमर्थ लोग यथाशक्ति ब्रह्मचर्यका पालन करें। १-दौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ अर्थ-गृहस्थोंका धर्म दो प्रकारका है एक इस लोकमें काम आनेवाला लौकिक और दूसरा परलोकमें काम आनेवाला पारलौकिक । उनमेंसे पहिला जो लौकिक है वह तो देशकालके अनुसार लोकके आश्रय है अर्थात् देशकालके अनुसार उसकी विधि बदलती भी रहती है परंतु वह धर्मशास्त्रसे विरुद्ध कभी नहीं होती। तथा दूसरा जो पारलौकिक है वह जैनसिद्धांतके अनुसार सदा एकसा ही रहता है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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