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________________ annnnnnnnnnnnnn ९ सागारधर्मामृत [११७ और सब जगह समस्त इष्ट संपदाओंकी तथा इच्छानुसार पदार्थों की प्राप्ति होती है ऐसा कहते हैं यथाकथंचिद्भजतां जिनं निर्व्याजचेतसां । नश्यंति सर्वदुःखानि दिशः कामान् दुहंति च ॥४१॥ अर्थ-जो जीव छल कपट रहित भक्तिपूर्वक अभिषेक, | पूजन, स्तोत्र आदि किसीतरह भी अरहंतदेवकी सेवा करते हैं उनके समस्त शरीरके और मनके संताप नष्ट हो जाते हैं और समस्त दिशायें उनके मनोरथ पूर्ण करती हैं अर्थात् छल कपट रहित भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेवकी पूजा करने. वालों को जिस जिस पदार्थकी इच्छा होती है वे सब पदार्थ उन्हें सब जगह मिल जाते हैं ॥४१॥ आगे--अरहंतदेवकी पूजा तो प्रतिदिन करनी ही चाहिये परंतु अरहंतदेवकी पूजाके समान सिद्ध परमेष्ठीकी पूजा भी | करनी चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं जिनानिक यजन्सिद्धान् साधून धर्म च नंदति । तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मंगलं च यत् ॥४२॥ ___ अर्थ-यह जीव जिसप्रकार अरहसदेवकी पूजा करता है उसीप्रकार यदि सिद्ध भगवानकी पूजन करे तथा मोक्षकी सिद्धिको ही सिद्ध करनेवाले साधु लोगोंकी अर्थात् सार्थक नाम होनेसे आचार्य, उपाध्याय और मुनियोंकी पूजा करे तथा व्यवहार और निश्चय इन दोनों प्रकारके रखत्रयरूप धर्मकी भी |
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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