SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सागारधर्मामृत [ ९७ आगे-नित्यमहको कहते हैं प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गंधादिना पूजा चैत्यगृहेऽहंतः स्वविभवाच्चैत्यादिनिर्मापणं । भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधादानं त्रिसंध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुग॥२५॥ अर्थ-प्रतिदिन अपने घरसे गंध पुष्प अक्षत आदि पूजाकी सामग्री ले जाकर जिनमंदिरमें अरहंतदेवकी पूजा करना, अपना धन खर्चकर जिनबिंब अथवा जिनमंदिर बनवाना, जिनमंदिर तथा पाठशाला आदिमें पूजा स्वाध्याय तथा अध्ययन आदिके लिये भक्तिपूर्वक राजनीतिके अनुसार सनदपत्र आदि लिखकर अथवा रजिष्टर्ड कराकर गांव घर खेत दुकान आदि देना अपने घर अथवा जिनमंदिरमें सवेरे दोपहर और शामको १. यदि यहांपर कोई ऐसी शंका करे कि मंदिरके लिये खेत आदि देनेमें पापबंध होता है क्योंकि खेतके जोतने बोनेमें हिंसा होती है इसलिये खेतका देना हिंसादान है । परंतुं ऐसे कहनेवालेको यह विचार करलेना चाहिये कि मंदिरके लिये जो खेत आदि देने में पापबंध होता है वह किसको होता है ? क्या मंदिरके स्वामी तीर्थंकरको होता है या देनेवालेको ? तीर्थकरको हो नहीं सकता क्योंकि वे रामद्वेषरहित हैं निस्पृह हैं, उनके लिये देना न देना समान है और न वे ग्रहण करते हैं न उनके किसी काममें आता है इसलिये उन्हें किसीतरह पापबंध नहीं हो सकता । इसीतरह देनेवालेको भी पापबंध नहीं हो सकता क्योंकि उस खेत आदिके दे चुकनेपर फिर वह उसका स्वामी नहीं है ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy