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________________ सागारधर्मामृत [ ९५ धर्मकार्य अवश्य करने चाहिये, और यदि उन्हीं धर्मकार्योंसे यश बढता हो तो वह कार्य स्वयं कल्याण करनेवाला है, उसे करना ही चाहिये अथवा जो आवश्यक वातें इस श्लोकमें नहीं कहीं हैं उनका ग्रहण भी 'च' शब्दसे होता है । जैसे ब्रह्ममुहूर्तमें अर्थात् सूर्योदयसे दो घडी पहिले उठना, शौच जाना, दतौन करना, स्नान करना आदि जो आरोग्य बढानेवाले आयुर्वेदमें प्रसिद्ध हैं वे कार्य प्रतिदिन करना चाहिये । ये सब कार्य लोकानुसार करने चाहिये अथवा अरहंतदेवके उपदेशके अनुसार संध्यावंदन आदि कार्योंको नित्य करना चाहिये ।। २३ ।। ___आगे-अठारह श्लोकोंमें जिनपूजाको विस्तार रातिसे लिखते है यथाशक्ति यजेतार्हदेवं नित्यमहादिभिः । संकल्पतोपि तं यष्टा भेकवत्स्वर्महीयते ॥२४॥ अर्थ-प्रत्येक मनुष्यको अपनी पूर्ण शक्तिके अनुसार नित्यमह आदि यज्ञोंके द्वारा श्री अरहंतदेवकी पूजा करनी १. दानं पूजा जिनैः शीलमुपवासश्चतुर्विधः । श्रावकाणांः मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ॥ अर्थ-दान, पूजा, शील और उपवास यह जो जिनेंद्रदेवका कहा हुआ चार प्रकारका श्रावकोंका धर्म है वह दुःखमय संसार वनको जलानेकेलिये अनिके समान है। आराध्यते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चैः । पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारूण्यबुध्या ॥ तत्त्वाभ्यासः ..... . .. - -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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