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________________ ९०] दूसरा अध्याय त्याग करता है, ( इसे 'गणग्रह क्रिया कहते हैं) तदनंतर ग्यारह अंग संबंधी उद्धारग्रंथ सूत्र आदि ग्रथोंको पढता है, (इसे 'पूजाराध्यक्रिया कहते हैं ) फिर चौदह पूर्व संबंधी शास्त्रोंको पढता है, (इसे 'पुण्ययज्ञक्रिया कहते हैं) इसके बाद वह न्याय व्याकरण अलंकार गणित और बुद्ध मीमांसा न्याय घर आनेपर- इयंतं कालमज्ञानात्पूजिताः स्थ कृतादरं । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिरस्मत्समयदेवताः ॥ ततोपमृषितेनालमन्यत्र स्वैरमास्यतां । इति प्रकाशमेवैता नीत्वान्यत्र कचित्त्यजेत ॥ गणग्रहः स एषः स्यात्प्राक्तनं देवतागणं । विसज्यार्चयत: शांता देवताः समयोचितः ॥ अर्थ- मिथ्यादेवताओंको उद्देश करके इसप्रकार कहे कि "आज तक मैंने अपने अज्ञानसे तुम्हारा बडा आदरसत्कार किया है, अब मेरे जिनशास्त्र और जिनदेवता ही पूज्य हैं इसलिये अब मुझपर क्रोध न करके अपनी इच्छानुसार कहीं दूसरी जगह चले जाइये" इसप्रकार कहकर उस मिथ्यादेवताकी मूर्तिको घरके बाहर कहीं भी जाकर रखदे इसप्रकार पहिलेके मिथ्यादेवताओंको छोडकर जिनधर्ममें मान्य ऐसे शांत देवताओंकी पूजा किया करे इसे गणग्रह कहते हैं। १- पूज्याराध्याख्यया ख्याता क्रियास्य स्यादतः परा। पूजोपवाससंपत्या गृह्णतोऽगार्थसंग्रहं ॥ अर्थ-तदनंतर पूजा और उपवास करके द्वादशांगका अर्थ ग्रहण करना इसे पूजाराध्यक्रिया कहते हैं। २-ततोन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबंधिनी । श्रृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ॥अर्थ—उसके बाद गुरुके मुखसे अपने सह. धर्मियोंके साथ साथ पूर्वविद्या अर्थात् चौदह पूर्वोका अर्थ सुनना सो पुण्यबंध करनेवाली पुण्ययज्ञक्रिया कहलाती है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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