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दूसरा अध्याय दिकमें पाप होनेके डरसे स्थूल हिंसाआदिके त्याग करनेका अभ्यास करना चाहिये राजा आदिके डरसे नहीं, क्योंकि यदि वह राजादिके डरसे हिंसादिके त्याग करने का अभ्यास करेगा तो उससे उसके कर्म नष्ट नहीं होंगे ॥१६॥
आगे-स्थूल हिंसादिके त्याग करनेवाले श्रावकको वेश्या आदिके समान जूआका भी त्याग करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं
द्यूते हिंसानृतस्तेयलोभमायामये सजन् । क स्वं क्षिपति नानर्थे वेश्याखटान्यदारवत् ॥१७॥
अर्थ--जूआ खेलनेमें हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और कपट आदि दोषोंकी ही अधिकता होती है । अर्थात् जूआ इन दोषोंसे भरपूर भरा हुआ है । जूआके समान वेश्यासेवन, परस्त्रीसेवन और शिकार खेलना भी हिंसा झूठ चोरी आदि पापोंसे भरा हुआ है । इसलिये जैसे वेश्यासेवन परस्त्रीसेवन
और शिकार खेलनेसे यह जीवं स्वयं नष्ट होता है, जातिभ्रष्ट होता है और धर्म अर्थ काम इन पुरुषार्थोंसे भ्रष्ट होता है उसीप्रकार जो श्रावक हिंसा झूठ चोरी लोभ और कपट इन पापोंसे भरे हुये ऐसे जुआके खेलनेमें अत्यंत आसक्त होता है वह अपने आत्माको तथा अपनी जातिको किस किस आपत्तिमें नहीं डाल देता है ! अर्थात् वह स्वयं नष्ट होता है उसके धर्म | अर्थ काम ये सब पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं और वह अपनी
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ALLAHABAD
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