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________________ ७२] दूसरा अध्याय आगे-क्रमके अनुसार मधु अर्थात् शहतके दोष दिखलाते हैंमधुकृबातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिंदुशः । खादन् बध्नात्यधं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकं ॥११॥ अर्थ-भौरा डांस मधुमक्खी आदि प्राणियोंके समुदायके विनाश होनेसे शहत उत्पन्न होता है इसके सिवाय उसमें हरसमय जीव उत्पन्न होते रहते हैं और मक्खी आदि प्राणियोंकी वह झूठन है इसलिये वह अत्यंत अपवित्र है कभी कभी शहत निकालनेवाले म्लेच्छ जीवों की लार वगैरह भी उसमें आपडती है इसतरह वह शहत महा अपवित्र और तुच्छ है । जो कोई मनुष्य ऐसे अपवित्र शहतकी एक बूंद भी खाता है उसे सात . १. अनेकजंतु संघातनिघातनसमुद्भवं । जुगुप्सनीयं लालावत्कः स्वादयति माक्षिकं ॥२॥ अर्थ-अनेक प्रकारके प्राणियोंके समुदायको विनाश करनेसे उत्पन्न हुये और लारके समान घृणित ऐसे शहतको भला कौन धर्मात्मा पुरुष भक्षण कर सकता है ? अथवा मक्षिकागर्भसंभूतबालांडकनिपीडनात् । जातं मधु कथं संतः सेवंते कललाकृति ॥२॥ अर्थ-जो मधुमक्खीके गर्भसे उत्पन्न होता है और छोटे छोटे अंडे बच्चोंको दाबकर निचोडनेसे निकलता है ऐसे मांसके समान शहतको सज्जन पुरुष कैसे सेवन करते हैं ? ॥ एकैककुसुमक्रोडाद्रसमापीय मक्षिकाः । यद्वमंति मधूच्छिष्टं तदनंति न धार्मिकाः ॥३॥ अर्थ-मधुमक्खी एक एक फूलके मध्य भागसे रस पकिर फिर उसे जो वमन करती है उसे शहत कहते हैं ऐसे झूठन शहतको धार्मिक लोग कभी नहीं खाते ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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